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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
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शास्त्रियों ने रोग-निदान और रोग-मुक्ति के लिए प्राणायाम का उपयोग करना आरम्भ किया है। बहुत से अस्पतालों में प्राणायाम की प्रारम्भिक अवस्थाएं शरीर में स्थिरता लाने तथा रक्त संचार के लिए उपयोग में लाई जा रही हैं।
प्राणायाम के सन्दर्भ में, योगाचार्यों ने आहार और आसनों के भी महत्त्व का प्रतिपादन किया है। प्राणायाम प्रारम्भ करने से पूर्व आसन में स्थिरता प्राप्त कर लेना आवश्यक है। साथ ही शरीर-शोधन की दृष्टि से, शरीर की आवश्यकतानुसार, षट्कर्मों का उपयोग करना भी श्रेयस्कर है। आसनों की सिद्धता के लिए आहार का पोषणयुक्त होना आवश्यक है। प्राणायाम के सन्दर्भ में पुनः आहार सम्बन्धी निर्देश दिया गया है जो इस बात का सूचक है कि साधक को इस संदर्भ में पर्याप्त सावधान रहना चाहिए।
ऊपर हमने जिन 'युक्त' और 'अयुक्त' शब्दों का उल्लेख किया है, योगाचार्यों ने उनका स्पष्टीकरण नहीं दिया है। भगवद्गीता में भी जब युक्त-आहार-विहार की चर्चा की गयी है, तो वहाँ भी स्पष्टीकरण की समस्या सामने आती है। भारतीय परम्परा अथवा योग परम्परा में इस प्रकार के शब्दों का उपयोग सम्भवतः दो बातों की
ओर संकेत करता है। एक तो प्राचीन आचार्य ऐसा चाहते रहे होंगे कि योग सम्बन्धी सभी अभ्यास गुरु के मार्गदर्शन में सम्पन्न हों और दूसरा यह कि साधक पूर्णरूपेण जागरूक हो। आहार कितना लेना, किस आसन का उपयोग करना, तथा प्राणायाम कितना और कब करना आदि सभी बातों में उसे किसी प्रकार का भी भ्रम नहीं होना चाहिए। हमारी धारणा यह है कि यहाँ गुप्त रखने लायक कुछ भी नहीं है। साधक अपने स्वयं के अनुभव द्वारा अपने सम्बन्ध में युक्त-अयुक्त आहार, आसन, प्राणायाम उसके परिमाण, और समय आदि का निश्चय स्वयं कर सकता है, परन्तु उसको अभ्यास करने से पूर्व शास्त्रीय-ज्ञान आवश्यक है। सूत्रमय भाषा के प्रयोग करने का अभिप्राय भी सम्भवतः यही रहा होगा।
हठयोग में प्राणायाम का वर्णन 'कुम्भक' शब्द से किया गया है । यहाँ पर यह भी समझ लेना आवश्यक है, कि प्राण, कुम्भक, मारुत, वायु, वात आदि शब्द सन्दर्भभेद के अनुसार प्रयोग किये गये हैं। इन आठ कुम्भकों का वर्णन जहाँ-जहाँ किया गया है वहाँ-वहाँ शरीर पर होने वाले परिणामों का भी निर्देश मिलता है। उदाहरणार्थ, श्लेष्मा दोष से मुक्ति, आलस्य से मुक्ति, पित्त आदि दोषों से उत्पन्न होने वाले रोगों से मुक्ति, शरीर-अग्नि की वृद्धि और अन्त में आरोग्यता तथा शारीरिक प्रसन्नता का वर्णन है।
अध्यात्म-मार्ग का अनुसरण करने वाले साधक प्रसन्न दीखने चाहिये । सामाजिक दृष्टि से उनकी प्रसन्नता का बड़ा महत्त्व है। इसी तरह साधक निरोगी भी होना चाहिए, जिससे कि वह स्वावलम्बन का जीवन जी सके और साथ ही अपने सद्मार्ग पर दूसरों को आकर्षित कर सके ।
प्राणायाम के जो आठ प्रयोग बताये जाते हैं, उसका हेतु सम्भवत: यह होगा कि साधक अपनी आवश्यकतानुसार कोई एक प्राणायाम निश्चित कर ले। गुरु के बताये हुए मार्ग में से, अपनी रुचि और शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार कोई भी प्राणायाम निश्चित किया जा सकता है। इसका निश्चय करने से पूर्व शरीर पर नियन्त्रण और विचार करने की क्षमता अपेक्षित है । विभिन्न प्रकार के प्राणायाम मानव-स्वभाव की विभिन्नता और प्रयोगबुद्धि की ओर संकेत करते हैं। इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि प्राणायाम अति आवश्यक नहीं है। सम्भवतः इसलिए ही पतंजलि ने इसका उल्लेखमात्र ही किया है। प्राणायाम की आवश्यकता अनुभव करने के बाद, उसका स्वरूप और मर्यादायें या तो साधक स्वयं निश्चित करें या उसका मार्गदर्शक, गुरु अथवा सम्प्रदाय । प्रत्येक स्थिति में सम्पूर्ण उत्तरदायित्व साधक का ही होगा। गुरु, शास्त्र, सम्प्रदाय आदि आधार मात्र हैं। शरीर पर होने वाले परिणाम (युक्त-अयुक्त) साधक को स्वयं ही अनुभव करने होंगे।
योग-मार्ग में ये साधना पद्धतियां शरीर से आरम्भ होकर एक निश्चित दिशा की ओर ले जाती हैं। उसी दिशा का वर्णन जैन-साहित्य में भी उपलब्ध है। जैन आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र में हमें प्राणायाम सम्बन्धी विस्तृत वर्णन मिलता है । आचार्य ने आसनों का उचित अभ्यास करने के पश्चात् प्राणायाम प्रारम्भ करना उपयोगी बताया है। प्राणायाम के सम्बन्ध में आचार्य की मान्यता है कि बिना इसके मन को जीता नहीं जा सकता और मन को जीतने के पवन-जय आवश्यक है। उन्होंने शेष सारी प्रक्रियाएँ योग के अनुसार ही मान्य की हैं। प्राणायाम से होने वाले लाभ भी उसी प्रकार बताये गये हैं। प्राणायाम करते समय प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान वायु को वश में करने के लिए कुछ बीजाक्षरों का प्रयोग बताया गया है। यहाँ पर योग परम्परा की अपेक्षा थोड़ा-सा भेद दिखाई देता है।
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