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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
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उन्मीलन कैसे
जब प्राणिक और मानसिक उद्वेग नष्ट हो जाते हैं, अहं का विसर्जन हो जाता है, मस्तिष्क की सीमाएँ जानकर व्यक्ति परम-चेतना के सम्मुख समर्पणभाव से नतशिर खड़ा हो जाता है तो हृदय-गुफा में छिपी यह ज्योतिकिरण बाहर आ जाती है। आनन्द इसका प्रथम लक्षण है । एक ऐसा आनन्द जो उद्वेगहीन पर ठोस होता है। शान्त, गम्भीर, निःस्वार्थ, यही आनन्द चैत्यपुरुष के जागरण का प्रथम लक्षण है। एक सहज आनन्द और व्यापकता की भावना। चैत्यपुरुष की अवधारणा को समझाना कठिन भी है और सरल भी। सरल इसलिए कि 'सत्प्रेम' के अनुसार "एक शिशु भी इसे जानता है। कितनी निर्द्वन्ता से वह हंसता है क्योंकि वह अपने चैत्यपुरुष में ही रहता है। कठिन इसलिए कि ज्यों-ज्यों हम बड़े होते हैं, नाना प्रकार की भावनाओं, विचारों आदि के कारण वह स्वतोद्भूत चैत्यस्थिति नष्ट होने लगती है और तब हम अपनी आत्मा की बात करने लगते हैं।"१२ ईश्वर-ज्योति से एकरूपता प्राप्ति
चैत्यपुरुष के उन्मीलन के लिए जो द्वार खुलता है-उसे श्री अरविन्द ऑपनिंग कहते हैं। चैत्यकेन्द्र का खुलना प्रमुखतः हमें वैयक्तिक ईश्वर से जोड़ता है। यह दिव्यता को आन्तरिक ढंग से सम्बद्ध करता है। यह मुख्य रूप प्रेम और भक्ति का स्रोत है। सिर के ऊपर केन्द्र का खुलना हमें पूर्ण दिव्य से सीधा जोड़ता है और हमारे भीतर दिव्य से चेतना को जन्म देता है। इसे नवजन्म या आध्यात्मिकजन्म कहा जा सकता है। जितना ज्यादा प्रेम और भक्ति से हृदय भरता है, जितना अधिक समर्पण होता है उतना ही पूर्ण साधना का विकास हो पाता है क्योंकि अवतरण और रूपान्तर का अर्थ ही है दिव्य चेतना से अधिक सम्पर्क और सायुज्यता।
यही साधना का मौलिक विचारतत्त्व है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इसमें हृदय चक्र और सिर के ऊपर से मानसिक चक्रों का खुलना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि हृदय चैत्यपुरुष के लिए खुला रहता है और मानसिक चक्र उच्चतर चेतना के लिए। कहना न होगा कि चैत्यपुरुष व उच्चतर चेतना का यह परस्पर सहयोग सिद्धि के लिए आवश्यक है। तात्कालिक व चरम लक्ष्य
श्री अरविन्द की इस साधना के तात्कालिक व चरम लक्ष्य भिन्न-भिन्न थे। सर्वोच्च सत्ता का अनिर्वचनीय, अन्तर्दी और संयोजक अनुभव इसका तात्कालिक लक्ष्य था। उन्होंने इसकी प्राप्ति की मूलभूत शतों को पूरा करने का प्रयत्न किया-जैसे नैतिक जीवन का उन्नयन, इच्छाओं व संवेगों का पूर्ण नियन्त्रण आदि । उनका चरम लक्ष्य संकुचित आत्म का प्रत्यक्ष ज्ञान, संवेदन, विचार तथा मानस के अन्य रूपान्तरणों से पृथक्करण तथा इसका वास्तविक आत्म से तादात्म्य स्थापित करना था जो समस्त सच्चे ज्ञान का आधार है। यह वास्तविक आत्म आत्मप्रकाशित, आत्मस्थित, अतिचैतन्य ब्रह्माण्डीय सत्य है। वे इस सबमें विश्वास करते थे और उनका दृढ़ विचार था कि इस सत्य की खोज उस अवस्था में नहीं की जानी चाहिए जब भौतिक जीवन में निराशा का सामना करना पड़े वरन् इसलिए कि यह मानवीय आत्मा की वास्तविक साध है।
श्री अरविन्द की मान्यता थी कि इस विधि से विकसित होना समस्त मानवीय चेतना की मूल प्रकृति है किन्तु उनकी दृष्टि में यह चरम अवस्था या योग का अन्तिम उद्देश्य नहीं है। उन्होंने यह अनुभव कर लिया था कि दिव्य सत्ता के साधन के रूप में कार्य करना आत्मा के विलीनीकरण या नीरवता से उच्चतर आध्यात्मिक स्थिति है। यही कारण था कि उनकी दृष्टि में उनका सक्रिय राजनैतिक जीवन उनकी आध्यात्मिक साधना के मार्ग में बाधक नहीं बन सकता था । वे राजनैतिक क्षेत्र में अत्यधिक उत्तेजनापूर्ण कार्यों में संलग्न रहे फिर भी अपने चेतन-जीवन के प्रत्येक क्षण में उनकी साधना सतत रूप से चलती रही।
इस साधना का उद्देश्य स्वर्गप्राप्ति या निर्वाणप्राप्ति नहीं बल्कि जीवन और सत्ता का परिवर्तन करना था और वह भी किसी प्रासंगिक के तौर पर नहीं बल्कि विशेष और मुख्य उद्देश्य के तौर पर । साधना : एक दिव्य एवं भव्य संघर्ष
इस साधना में जिस ध्येय की खोज करनी थी वह व्यक्ति के हित के लिए भगवान के साक्षात्कार की व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है वरन् अभीप्सित वस्तु है चेतना की वह शक्ति जिसे क्रियाक्षेत्र में उतारना है जो अभी पार्थिव प्रकृति में, यहाँ तक कि आध्यात्मिक जीवन तक में संगठित या प्रत्यक्षतः क्रियाशील नहीं है। फिर भी इतना महान् उद्देश्य प्रारम्भ में अत्यन्त सरल रूप में दिखायी पड़ता है। इसका वास्तविक स्वरूप समझने का प्रयास करते हैं तो जो भव्य दृश्य उभरता है वह कुछ इस प्रकार है-सत्य के अनुसंधान के लिए संघर्षरत एक मानवीय आत्मा किन्तु ज्यों-ज्यों
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