________________
6. ६२
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
+
+
+
+
+
++
+
++++
++
++
++
++++
+++++
++
+
सद्गुणों का अभाव होता है, किन्तु उन पर महानता की श्री का समय-समय पर मुझे मार्गदर्शन मिला । उन्होंने मुझे मुद्रा लगा दी जाती है। किन्तु सही रूप में वे महापुरुष ज्ञान, दर्शन चारित्र्य में निरन्तर आगे बढ़ने के लिए नहीं होते । तीसरे महापुरुष भी होते हैं जो अपने पुरुषार्थ प्रेरणाएँ दीं। से, श्रम से, अध्ययन चिन्तन-मनन व साधना से महापुरुष मैंने गुरुदेव श्री के अनेक बार दर्शन किये, सेवा में बनते हैं। पूज्य गुरुदेव श्री तीर्थंकर की तरह जन्मजात चातुर्मास भी हुए । गुरुदेव श्री को बहुत ही सन्निकटता से महापुरुष नहीं हैं, और न उन पर महानता थोपी गयी है, देखने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। मैंने अनुभव किया किन्तु अपने प्रयत्न व साधना के बल पर वे महापुरुष पूज्य गुरुदेव श्री बड़े ही दयालु हैं, उनका मानस मक्खन से बने हैं।
भी अधिक मुलायम है। उनकी ध्यान-साधना गजब की सन् १६५७ का वर्षावास श्रद्धय सद्गुरुवर्य का है। मैंने प्रत्यक्ष देखा है कि ध्यान के समय कोई आधिउदयपुर में हुआ। मेरी मौसी के लड़के देवेन्द्र मुनि, जो मेरे व्याधि-उपाधि से ग्रसित व्यक्ति आपश्री के सन्निकट बैठता सांसारिक भाई लगते हैं उनका भी चातुर्मास गुरुदेव श्री है तो वह उससे मुक्त हो जाता है और परम आल्हाद का के साथ ही था। अतः मैं समय-समय पर दर्शनार्थ जाती अनुभव करता है। और वह व्याधि से सदा के लिए मुक्त तब गुरुदेव श्री मुझे दीक्षा की प्रेरणा प्रदान करते । गुरुदेव हो जाता है। श्री की प्रबल प्रेरणा ने ही मेरे मन में बैराग्य भावना पूज्य गुरुदेव श्री की निर्मल छत्र-छाया हमारे पर सदा जागृत की और मैंने अपनी मौसी महाराज प्रतिभामूर्ति बनी रहे जिससे हम ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सदा आगे प्रभावती जी महाराज तथा बहन महाराज श्री पुष्पवती जी बढ़ती रहें. यही श्रद्धा सुमन समर्पित करती हूँ। महाराज के पास आहती दीक्षा ग्रहण की। पूज्य गुरुदेव
10
श्रमण-संस्कृति के सतेज साधक
0 साध्वी सरोज, शास्त्री, साहित्यरत्न विश्व की संस्कृतियों में स्रमण संस्कृति का एक विशिष्ट जागते प्रतीक हैं। इनके विचार उदात्त हैं और आचार और गौरवपूर्ण स्थान है। यह अध्यात्म-प्रधान संस्कृति है, निर्मल हैं । जीवन के कण-कण में और मन के अणु-अणु में यम, नियम और संयम की संस्कृति है । प्रस्तुत संस्कृति का स्नेह-सद्भावना, त्याग-वैराग्य का पयोधि उछालें मार रहा यह वज्र आघोष रहा है कि मानव-जीवन का लक्ष्य भोग है। उनके सन्निकट बैठने पर अपार आनन्द की अनुभूति होती नहीं योग है, संग्रह नहीं त्याग है, राग नहीं विराग है, है, मानों भीष्म-ग्रीष्म ऋतु में सागर के सन्निकट बैठे हों अन्धकार नहीं प्रकाश है, मृत्यु नहीं अमरता है, असत्य नहीं और चिलचलाती धूप में सघन घटादार उपवन की शीतल सत्य है।
छाया में बैठे हों। परम श्रद्धय महामहिम उपाध्याय अध्यात्मयोगी श्री मैंने श्रद्धा की आँख से ही नहीं, किन्तु तीक्ष्ण बुद्धि की पुष्कर मुनि जी महाराज इसी संस्कृति के एक सजग और पैनी दृष्टि से जीवन को निरखा और परखा, मुझे लगा कि सतेज साधक हैं । वे विद्वान्, विचारक और तत्ववेत्ता हैं । वैदूर्य मणि की तरह श्रद्धय गुरुदेव के जीवन का प्रत्येक उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य और विद्वत्ता की मधुर सौरभ चारों पहलू चमकदार है, प्रकाशित है और जो उनके सन्निकट ओर प्रसारित हो चुकी है और वह जन-जन के मानस को जाता है वह भी उस अलौकिक प्रकाश से जगमगा उठता अनुप्रेरित और अनुप्राणित कर रही है। उनकी प्रखर है। मुझे यह लिखते हुए सात्त्विक गौरव होता है कि मुझे प्रतिभा और अपार बुद्धि बल उनकी कृतियों में निहारा जा जो आनन्दानुभूति उनके सन्निकट बैठकर हुई वह अद्भुत सकता है । उनकी प्रखर प्रतिभा की दार्शनिक देन अजब- अनुभूति अपने जीवन में कहीं नहीं हुई। जब मैं उनके गजब की है। इनका ज्ञान निर्मल है, सिद्धान्त अटल हैं ध्यान में बैठी तो मुझे आध्यात्मिक और अलौकिक शक्ति और वे जीवन कला के सच्चे और अच्छे पारखी हैं। के विद्य त-तरंग ने मन को आनन्द से पूरित कर दिया।
मैंने आपके दर्शन सर्वप्रथम पुण्यभूमि पूना में किये थे वस्तुतः वे अध्यात्मयोगी हैं, उनके श्री चरणों में कोटिऔर छह महीने तक आपश्री के सन्निकट वर्षावास में सेवा कोटि श्रद्धा सुमन समर्पित कर मैं अपने आपको भाग्यशाली करने का सौभाग्य संप्राप्त हुआ। मुझे ऐसा अनुभव हुआ अनुभव कर रही हूँ। कि उपाध्याय पुष्कर मुनि जी श्रमण संस्कृति के एक जीते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org