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योग और मन
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योग की उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि चंचलता मन का स्वभाव नहीं है। यदि चंचलता मन का स्वभाव होता तो उसके निरोध, निग्रह एवं स्थिरता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। क्योंकि स्वभाव को कभी बदला नहीं जा सकता। मन का अपना स्वभाव चंचलता नहीं, स्थिरता है। चंचलता तो ऊपर की बात है। कमल के पत्ते पर पानी कितना चंचल एवं अस्थिर प्रतीत होता है। वह प्रतिक्षण यहाँ-वहाँ थिरकता रहता है। कहीं टिकता और ठहरता ही नहीं। किन्तु चंचलता एवं अस्थिरता क्या पानी का अपना निजी स्वभाव है ? गहराई से देखा जाए तो पानी तो ठहरने के लिए स्थिरता खोज रहा है। उसकी चंचलता, स्थिरता खोजने के लिए है। अपना अभीप्सित स्थान उपलब्ध होते ही, वह स्थिर हो जायेगा। इसी प्रकार मन भी अपनी स्थिरता ढूंढने के लिए चंचल प्रतीत हो रहा है, इधर-उधर उड़ता-दौड़ता दिखायी दे रहा है। अपना स्थान मिलते ही वह भी वहीं स्थिर हो जायेगा, ठहर जायेगा।
कहना न होगा कि पानी और मन की चंचलता अकारण नहीं, सकारण है। पानी कमल के पत्ते के कारण चंचल लग रहा है और मन वृत्ति की चाप एवं वासना के वेग से चपल प्रतीत हो रहा है। मन के पटल से ज्यों ही वृत्तियाँ विसर्जित होती हैं अथवा वृत्तियों का निरोध और वासना का विसर्जन होता है, त्यों ही मन अपने स्थिर स्वभाव में आ जाता है। मन की वृत्ति तथा वासना जितनी तीव्र होगी, मन का कम्पन एवं चांचल्य भी उतना ही तीव्र होगा और मन की वृत्ति जितनी शांत होगी, मन की चंचलता का वेग भी उतना ही शांत हो जाता है। वृत्ति की चाप
और वासना के अन्धे वेग से मनुष्य का मन चंचल बनता है, इधर-उधर, आगे-पीछे तथा ऊपर-नीचे होता है। वृत्ति का निरोध होने पर मन की चंचलता स्वयं विलीन हो जाती है, अपने आप मिट जाती है। घर के भीतर कमरे में एक दीपक जल रहा है। यदि उसे हवा का झोंका न लगे तो वह अकंप-अडोल जलता है। उसकी लौ नहीं कंपती। निर्वात स्थान में दीपक की लौ अखण्ड रूप से जलती है। किन्तु हवा के झोंके से दीपक की लौ कंप जाती है, अस्थिर हो जाती है। इसी प्रकार वृत्ति के आघात और वासना के अंधे वेगों के धक्के लगने से मनुष्य का मन डावांडोल हो जाता है। यहाँ-वहाँ, आगे-पीछे दौड़ता-भागता है। वृत्तियों और वासनाओं से मुक्त मन चंचलता के भय से भी मुक्त हो जाता है। जब तक वृत्तियाँ और वासनाएँ क्षीण नहीं होती, तब तक मन शांत एवं स्थिर नहीं हो सकता। दीपक की लौ को अकंप एवं स्थिर होने के लिए वायु-रहित स्थान चाहिए और मन को स्थिर तथा शांत होने के लिए वृत्तियों का निरोध और वासनाओं का क्षय नितान्त आवश्यक है । इसी दृष्टि से मन की वृत्ति के निरोध को योग कहा गया है। योग से ही निरोध फलित होता है।
मनोनिरोध के दो उपाय : अभ्यास और वैराग्य मन की वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं । अभ्यास और वैराग्य से वृत्तियों का निरोध होता है। जैसे एक पहिए से गाड़ी नहीं चल सकती और एक पंख से पक्षी अनन्त आकाश में उड़ान नहीं भर सकता; इसी प्रकार केवल अभ्यास अथवा वैराग्य के द्वारा मन की समस्त वृत्तियों का निरोध नहीं हो सकता। अभ्यास तथा वैराग्य दोनों से ही मन की वृत्तियों का निरोध सम्भव है । वैराग्य के द्वारा मन का बहिर्मुख-प्रवाह निवृत्त होता है और अभ्यास से वह आत्मोन्मुख आन्तरिक प्रवाह में स्थिर हो जाता है।
योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास ने अपने योग-भाष्य में इसी तथ्य को एक सुन्दर रूपक के द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है--"चित्त एक नदी के समान है, जिसमें वृत्तियों का प्रवाह बहता है। इसकी दो धाराएँ हैं। एक धारा संसार सागर की ओर बहती है और दूसरी कल्याण-सागर की ओर। पूर्वजन्म में जिन व्यक्तियों के संस्कार संसारी विषय-भोगों को भोगने के रहे हैं, उनके मन की वृत्तियों की धारा विगत संस्कारों के फलस्वरूप दुःख-सुख रूपी विषममार्ग से बहती हुई संसार-सागर में जा मिलती है और जिन व्यक्तियों ने कैवल्यार्थ आत्मस्वरूप की उपलब्धि के लिए काम किये हैं; तो विगत संस्कारों के परिणामस्वरूप उनके मन की वृत्तियों की धारा विवेक-मार्ग से बहती हुई कल्याणसागर में जा मिलती है। विषयासक्त व्यक्तियों की पहली धारा जन्म से ही खुली रहती है और दूसरी धारा को शास्त्र, गुरु, धर्माचार्य तथा ईश्वर-चिन्तन खोलते हैं। पहली धारा को बन्द करने के लिए वैराग्य का बाँध लगाया जाता है और अभ्यास के फावड़ों से दूसरी धारा का मार्ग गहरा खोद कर वृत्तियों के समस्त प्रवाह को विवेक-स्रोत में डाल दिया जाता है तब प्रबल वेग से वह सारा प्रवाह कल्याण-सागर में विलीन हो जाता है। जैसे किसी नदी के बाँध से दो नहरें निकलती हैं, तो एक नहर में तख्ता डालकर, उसके जल-मार्ग को रोककर दूसरी नहर में जल छोड़ देते हैं, तो पहली नहर सूख जाती है, इसी तरह अभ्यास तथा वैराग्य से दु:खदायी वृत्तियों को सांसारिक विषयों से मोड़कर कल्याणसागर में ले जाते हैं।"२८
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