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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
इतना तो सुनिश्चित है कि वर्तमान स्थिति में जैसा मनुष्य का मन है, इस मन को लेकर साधना की इस अन्तर्यात्रा पर नहीं चला जा सकता । पुराने गले-सड़े और जीर्ण-शीर्ण मन के साथ आत्मा की ओर, परमात्मा की ओर, मोक्ष की ओर गति नहीं हो सकती। क्योंकि, प्रस्तुत चंचल, अस्थिर, अशांत, असंयत, भोगासक्त एवं विकारयुक्त मन आत्मा को परमात्मा तथा मोक्ष से जोड़ता नहीं, तोड़ता है । साधना की इस अमृत-यात्रा पर चलने के लिए साधक को एक नया-नितान्त नया मन चाहिए।
इसमें सन्देह नहीं कि वह नया मन योग से उत्पन्न किया जा सकता है। योग-दर्शन के मनीषी एवं चिन्तनशील आचार्यों ने योग के रूप में, मनुष्य के भीतर नया मन निर्मित करने की एक अद्भुत रसायन की खोज की है। योग से मन को रूपान्तरित किया जा सकता है। योग मन के रूपान्तरण की एक बृहत्तर परियोजना है। योगाभ्यास मन को परिवर्तित करने का एक आध्यात्मिक अभियान है। यह यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यानसमाधिरूप अष्टांग योग की व्यवस्था, आध्यात्मिक भावना और समता का विकास करने वाला तथा विकारों का क्षय करने वाला धर्म-व्यापार-मनुष्य के भीतर नया मन निर्मित करने का एक अनुपम उपक्रम तथा अध्यात्मआयोजन ही तो है।
सच तो यह है कि योग मानव-मन का पूरी तरह कायाकल्प करता है। जैसे कल्प के माध्यम से शरीर का पूर्णतः रूपान्तरण, परिवर्तन एवं कायापलट हो जाता है, पुराने शरीर के स्थान पर एक नये शरीर का सृजन हो जाता है, त्वचा, मांस, मज्जा, रक्त तथा रोमराजि आदि सब शारीरिक तत्त्वों का पूर्णतया नवीकरण और पुननिर्माण हो जाता है; इसी प्रकार सतत योगाभ्यास से मनुष्य के मन का आमूल परिवर्तन हो जाता है। योग पुराने मन के स्थान पर एक नया, स्फूर्त, स्थिर, शांत, संयत, अनासक्त एवं निर्मल मन निर्मित कर देता है । इस नये मन को लेकर ही साधक अपनी साधना की अन्तर्यात्रा पर आगे बढ़ सकता है और आत्मा को परमात्मा के पद पर प्रतिष्ठित कर सकता है । योग दुःख से मुक्त होने का उपाय है
मनुष्य-जीवन का सर्वोच्च ध्येय है-दुःख से मुक्ति, बन्धन से मुक्ति, वासना से मुक्ति । दुःख से मुक्त होना परम पुरुषार्थ है।"
मनुष्य का भोगासक्त, वासनायुक्त एवं संसाराभिमुख, चंचल एवं अस्थिर मन जो दुःख अजित कर लेता है, उससे मुक्त होने का मार्ग भी मन से ही प्राप्त होता है।" दुःख की गहन अनुभति एवं गहरी प्रतीति से ही मुक्ति की खोज प्रारम्भ होती है। दुःख का आत्यन्तिक बोध होने पर व्यक्ति का उसमें रहना और जीना असम्भव हो जाता है । घर में लगी आग को व्यक्ति अपनी खुली आँखों से भलीभाँति देख ले, जान ले तो उसकी समग्र चेतना उस आग से भाग निकलने का उपाय खोजने में संलग्न हो जाती है और वह उपाय खोज लेती है। गहरी अनुभूति एवं प्रतीति से ही उपाय निकलता है। जिसने गहरे मन से दुःख का प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर लिया है तो योग उससे मुक्त होने का द्वार बन सकता है । दुःख से योग फलित होता है।
प्रस्तुत सन्दर्भ में, जैन-परम्परा का एक प्रसिद्ध एवं हृदयस्पर्शी आख्यान है। राजकुमार मृगापुत्र को जब भीतर बहुत गहरे तक यह प्रतीति होती है कि यह समग्र संसार दुःख की आग में जल रहा है तो उसकी अन्तरात्मा एकदम छटपटा उठती है और दुःख की उस आग से बाहर निकलने के लिए उसकी समग्र चेतना पूरी तरह जाग्रत हो जाती है। वह अपनी माता से विनम्र एवं साग्रह निवेदन करता है—'माँ, मुझे आज्ञा दीजिए। जन्म, जरा और मरण की आग में जलते इस संसार से मैं आत्मा को पार ले जाना चाहता हूँ, इससे मुक्त होना चाहता हूँ।"१९
दुःख का यह आत्यन्तिक बोध ही उसके लिए उपाय की खोज बन गया; और, माता की आज्ञा उपलब्ध होते ही, वह राजकुमार तत्काल छलांग लगा गया—योगी बनकर दुःख से पार हो गया।
संक्षेप में, योग एक विधि है, दुःख की आग से बाहर निकलने के लिए। योग एक अमोघ साधन है, दुःख से त्राण पाने के लिए। योग एक नौका है, दुःख से पार जाने के लिए। योग एक युक्ति है, दुःख सागर को तैरकर पार उतरने के लिए। योग एक तीक्ष्ण कुठार है, जीवन की समस्त आपदा-विपदाओं का समूल उन्मूलन करने के लिए। दु:ख के साथ जो मनुष्य के जीवन का संयोग है, उससे वियुक्त होने का नाम ही तो योग है। योग के माध्यम से प्राप्त मनोनिग्रह एवं निरोध ही इस संसार के दुःख से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है ।" मन के निग्रह तथा निरोध से दुःख शांत हो जाता है ।२४ योग से निरोध फलित होता है
मनुष्य का मन चंचल है, अस्थिर है-यह एक निर्विवाद तथ्य है। योग चंचल एवं अस्थिर मन को एकाग्र तथा स्थिर करने का सर्वोपरि साधन है । वृत्तियों का निरोध योग है। योग से निरोध फलित होता है ।
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