________________
युग प्रवर्तक क्रांतिकारी आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज : व्यक्तित्व और कृतित्व
६१
दिल्ली बसाई। यह अनंगपाल तोमरवंशीय क्षत्रिय था। संवत् १३८४ का एक शिलालेख जो दिल्ली म्यूजियम में है, उसमें तोमर वंशियों के द्वारा दिल्ली बसाने का उल्लेख मिलता है। इसके पूर्व दिल्ली का नाम इन्द्रप्रस्थ था।
किसनदास ने अपनी कविता में दिल्ली नामकरण के सम्बन्ध में लिखा है कि जमीन में लोहे की एक कीली लगायी गयी, किन्तु वह ढीली हो जाने से उसका नाम ढिल्ली हुआ। फरिश्ता कहते है कि यहाँ मिट्टी इतनी मुलायम है कि इसमें मुश्किल से किल्ली मजबूत रह सकती है। अतः इसका नाम ढिल्लिका रखा गया। इसके योगिनीपुर, दिल्ली, देहली आदि नामों के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं।
गणधर सार्धशतक" उपदेशसार खरतरगच्छ गुर्वावली३ विविध तीर्थकल्प", तीर्थमाला" प्रभृति अनेक ग्रन्थों में यह स्पष्ट उल्लेख है कि दिल्ली प्रारम्भ से ही जैनियों का प्रमुख केन्द्र रही है। यहाँ पर अनेक श्रेष्ठी लोग जैनधर्म के अनुयायी थे, श्रमण संस्कृति के उपासक थे।
देहली के ओसवाल वशीय तातेर गोत्रीय सेठ देवीसिंहजी अपने युग के प्रसिद्ध व्यापारी थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम कमलादेवी था। पति और पत्नी दोनों समान स्वभाव के थे, सन्तों की संगति में विशेष अभिरुचि थी। जैन श्रमणों का जब कभी योग मिलता तो वे धर्मकथा श्रवण करने को पहुँचते थे, धर्मचर्चा में उन्हें विशेष रस था।
एक दिन कमला देवी अपनी उच्च अट्टालिका में सानन्द सो रही थी। शीतल मन्द सुगन्ध समीर आ रहा था। प्रातःकाल होने वाला ही था कि उसे एक स्वप्न आया कि आकाशमार्ग से एक अति सुन्दर और अमर भवन नीचे उतर रहा है और वह उसके मुंह में प्रवेश कर रहा है। स्वप्न को देखकर कमलादेवी उठकर बैठ गयी और उसने अपने पति देवीसिंहजी से स्वप्न की बात कही। देवीसिंहजी ने हर्षविभोर होकर कहा-सुभगे, तेरे भाग्यशाली पुत्र होगा। यथासमय आश्विन शुक्ला चतुर्दशी रविवार सवत् १७१६ में रात्रि के समय शुभ मुहूर्त और शुभबेला में "पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र का नाम अमरसिंह रखा गया और वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। शैशवकाल में यह नाम मातापिता को तृप्ति प्रदान करता था। श्रमण बनने पर आचार्य लालचन्दजी महाराज को तृप्ति देने लगा। आचार्य-जीवन में वह लाखों श्रद्धालुओं के लिए श्रद्धा का केन्द्र बन गया । यह नाम स्थानकवासी परम्परा के गौरव का प्रतीक है।
शिशु का वर्ण गौर था, तेजस्वी आँखें थीं, मुस्कुराता हुआ सौम्य चेहरा था और शरीर सर्वांग सुन्दर था। जिसे देखकर दर्शक आनन्द विभोर हो जाता था। अमरसिंह के जन्म लेते ही अपार संपत्ति की वृद्धि होने से और सुखसमृद्धि बढ़ने से पारिवारिक जन अत्यन्त प्रसन्न थे। माता का वात्सल्य, पिता का स्नेह और पारिवारिक जनों का प्रेम उसे पर्याप्त रूप से मिला था। रूप और बुद्धि की तीक्ष्णता के कारण सभी उसकी प्रशंसा करते थे। अमर संस्कारी बालक था। उसमें विचारशीलता, मधुरवाणी, व्यवहारकुशलता आदि सद्गुण अत्यधिक विकसित हुए थे। उसमें एक विशिष्ट गुण था, वह था चिन्तन करने का। वह अपने स्नेही-साथियों के साथ खेल-कूद भी करता था, नाचता-गाता भी था, हँसता-हँसाता भी था, रूठता-मचलता भी था, बाल-स्वभावसुलभ यह सब कुछ होने पर भी उसकी प्रकृति की एक अनूठी विशेषता थी कि सदा चिन्तन मनन करते रहना। योग्य वय होने पर उसे कलाचार्य के सन्निकट अध्ययन के लिए प्रेषित किया, किन्तु अद्भुत प्रतिभा के कारण अल्प समय में ही उसने अरबी, फारसी, उर्दू, संस्कृत आदि भाषाओं का उच्चतम अध्ययन कर लिया। आपकी प्रकृष्ट प्रतिभा को देखकर कलाचार्य भी मुग्ध हो गया। सस्कारों का वैभव दिन प्रतिदिन समृद्ध हो रहा था।
एक बार ज्योतिर्धर जैनाचार्य लालचन्दजी महाराज देहली पधारे। उनके उपदेशों की पावन गंगा प्रवाहित होने लगी। अमरसिंह भी अपने माता-पिता के साथ आचार्यप्रवर के प्रवचन में पहुंचा। प्रवचन को सुनकर उसके मन में वैराग्य भावना अंगड़ाइयाँ लेने लगी। उसे लगा कि संसार असार है। माता-पिता ने उसकी भाव-भंगिमा को देखकर यह समझ लिया कि यह बालक कहीं साधना के मार्ग में प्रवेश न कर जाय। अतः उन्होंने देहली की एक सुप्रसिद्ध श्रेष्ठीपुत्री के साथ तेरह वर्ष की लघुवय में बालक अमर का पाणिग्रहण कर दिया गया। उस युग में बालविवाह की प्रथा थी। बाल्यकाल में ही बालक और बालिकाओं को विवाह के बन्धन में बाँध दिया जाता था; किन्तु उनका गार्हस्थिक सम्बन्ध तब तक नहीं होता था जब तक वे पूर्ण युवा नहीं हो जाते थे। विवाह होने के पश्चात् भी लड़की मायके में ही रहती थी। किशोर अमर को विवाह के बन्धन में बँधने पर भी उसके मन में किसी भी प्रकार का आकर्षण नहीं था। उसका अन्तर्मानस उस बन्धन से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था। किन्तु माता-पिता की अनुमति के वे बिना संयम साधना के महामार्ग पर नहीं बढ़ सकते थे। उन्होंने माता-पिता से निवेदन किया, किन्तु मातापिता धर्म-प्रेमी होने पर भी पुत्र को मोह के कारण श्रामणी जीवन में देखना नहीं चाहते थे। उन्होंने कहा-पुत्र, कुछ
AJ
14
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org