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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
इतिहासविज्ञों का अभिमत है कि भगवान महावीर का युग श्रमण संस्कृति का स्वर्ण-युग था। इस युग में श्रमण संस्कृति अपने चरम उत्कर्ष पर थी। हजारों-लाखों साधकों ने आत्म-कल्याण व जन-कल्याण किया। काल प्रवाह से उसमें कुछ विकृतियाँ आ गयी थीं, जिसे श्रमण भगवान महावीर ने अपने प्रबल प्रभाव से दूर किया और नया चिन्तन, नया दर्शन देकर युग को परिवर्तित किया।
भगवान महावीर ने चिन्तन और दर्शन के क्षेत्र में जो क्रान्ति कर अवरुद्ध प्रवाह को मोड़ा था, परिस्थितिवश पूनः उस प्रवाह में मन्दता आ गयी, धार्मिक अन्धविश्वासों ने मानव के चिन्तन को अवरुद्ध कर दिया था। अतः क्रान्तिकारी ज्योतिर्धर आचार्यों ने पुनः क्रान्ति की।
सन्त परम्परा के समुज्ज्वल इतिहास में सोलहवीं शदी का विशेष महत्व है। इसी युग को वैचारिक क्रान्तिकारियों का युग कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी । कबीर, नानक, सन्त रविदास, तरण-तारण स्वामी और लोंकाशाह आदि ने क्रान्ति की शंखध्वनि से भारतीय जनमानस को नवजागरण का दिव्य सन्देश दिया। धर्म के मौलिक तत्त्वों के नाम पर जो विकार, असंगतियाँ और कलह-मूलक धारणाएँ पनप रही थीं उनके प्रति तीव्र असन्तोष व्यक्त किया। उन क्रान्तिकारियों के उदय से स्थितिपालक समाज में एक हलचल उत्पन्न हो गयी और परिणामस्वरूप प्रतिक्रियावादी भावनाएँ उद्बुद् हुई । यह एक ऐतिहासिक परखा हुआ सत्य है कि मानव-संस्कृति का वास्तविक पल्लवन और संवर्धन संघर्ष की पृष्ठभूमि में ही होता है । शान्तिकाल में तो भौतिक समृद्धि और उसकी चकाचौंध पनप सकती है किन्तु क्रान्ति और नवसृजन संघर्ष की पृष्ठभूमि पर ही पनपते हैं । यही कारण है सन्त परम्परा का विकास विपरीत परिस्थितियों में हुआ है। वह विशाल और उदात्त भावनाओं को लेकर पाशविकता से लड़ी और सुदढ़ सौन्दर्यसम्पन्न परम्पराएँ डालीं जिन पर मानवता सदा गर्व करती रही। . श्रमण संस्कृति की एक क्रान्तिकारी परम्परा स्थानकवासी समाज के नाम से विश्रुत है जिसने साधना, भक्ति और उपासना के क्षेत्र में विस्तार किया । यह एक अध्यात्मप्रधान सम्प्रदाय है। इसमें यम, नियम और संयम की प्रधानता है। मानव-जीवन के मूल्य व महत्व का इसमें सही-सही अंकन किया गया है । इस परम्परा का उद्देश्य मानव को भोग से योग की ओर, संग्रह से त्याग की ओर, राग से विराग की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, मुत्यु से अमरता की ओर, असत्य से सत्य की ओर ले जाना है।
श्रद्धेय मरुधर धरा के उद्धारक युग-प्रवर्तक पूज्यश्री अमरसिंहजी महाराज इसी संस्कृति के सजग और सतेज सन्तरत्न थे । अपने युग के परम विद्वान, विचारक और तत्ववेत्ता थे। आपके अगाध पाण्डित्य व विद्वत्ता की सुरभि दिग्-दिगन्त में फैल चुकी थी और आज भी वह मधुर सौरभ जन-जन के मानस को अनुप्रेरित व अनुप्राणित करती है।
आपका ज्ञान निर्मल था, सिद्धान्त अटल था और आप स्थानकवासी परम्परा व श्रमण संस्कृति की एक विमल विभूति थे।
पूज्यश्री अमरसिंहजी महाराज का जन्म भारत की राजधानी दिल्ली में हुआ। दिल्ली की परिगणना भारत के प्रधान नगरों में की गयी है। यह वर्षों से भारत की राजधानी रही है। इस महानगरी का निर्माण किसने किस समय किया इस सम्बन्ध में विज्ञों में एकमत नहीं है। दिल्ली राजावली, कवि किसनदास व कल्हण की एक महत्वपूर्ण कृति है । इसके अभिमतानुसार दिल्ली की संस्थापना संवत् ६०६ में हुई।' पट्टावली समुच्चय में संवत् ७०३ में अनंगपाल तुअर द्वारा बसाने का उल्लेख है । कनिंघम ने "दि आकियलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया" ग्रन्थ में सन् ७३६ में अनंगपाल प्रथम के द्वारा दिल्ली बसाने का निर्देश किया है। पं० लक्ष्मीधर वाजपेयी का मन्तव्य है तोमर वंशीय अनंगपाल प्रथम दिल्ली का मूल संस्थापक है। उसका राज्याभिषेक सन् ७३६ में हुआ और उसी ने सर्वप्रथम दिल्ली में राज्य किया। उसके पश्चात् उसके वंशज कन्नौज में चले गये और वे वहीं पर रहे। बहुत वर्षों के पश्चात् द्वितीय अनंगपाल दिल्ली में आया और उसने अपनी राजधानी दिल्ली बनायी। उसने नवीन नगर का निर्माण करवाया। नगर का कोट बनवाया। कुतुबमीनार के सन्निकट जो आज खण्डहरों का वैभव बिखरा पड़ा है उसे इतिहासकार द्वितीय अनंगपाल की राजधानी मानते हैं। उसके समय का शिलालेख भी मिलता है जिसमें संवत् ११०६ अनंगपाल वही का उल्लेख है। कुतुबमीनार के सन्निकट अनंगपाल के द्वारा बनाया गया एक मन्दिर है, उसके एक स्तम्भ पर अनंगपाल का नाम उत्कीर्ण किया हुआ है। श्री जयचन्द्र विद्यालंकार' सन् १०५० में अनंगपाल नामक एक तोमर सरदार द्वारा दिल्ली की स्थापना का उल्लेख करते हैं और श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का अभिमत है कि द्वितीय अनंगपाल ने
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