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जैन-धर्म-परम्परा : एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण
७.
वरुरुचि के षड्यन्त्र से विवश होकर पिता की इच्छानुसार श्रेयक ने पिता को मार दिया। पिता के अमात्य पद को ग्रहण करने के लिए स्थूलभद्र से कहा गया, किन्तु पिता की मृत्यु से उन्हें वैराग्य हो गया, उन्होंने आचार्य संभूतिविजय के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। प्रथम वर्षावास के समय एक मुनि ने सिंह गुफा पर चातुर्मास की अनुमति मांगी। दूसरे ने दृष्टिविष सर्प की बांबी पर। तीसरे ने कुंए के कोठे पर और स्थूलभद्र ने कोशा की चित्रशाला में । स्थूलिभद्र कोशा के यहाँ पहुँचे। वासना का वातावरण था । कोशा वेश्या ने हाव-भाव और विलास से स्थूलभद्र को चलित करने का प्रयास किया किन्तु वे चलित न हुए। अन्त में वेश्या स्थूलभद्र के उपदेश से श्राविका बन गयी ।
वर्षावास पूर्ण होने पर सभी शिष्य गुरु के चरणों में पहुंचे । तीनों का दुष्करकारक तपस्वी के रूप में स्वागत किया। स्थूलिभद्र के आने पर गुरु, सात-आठ कदम उनके सामने गये और दुष्कर-दुष्कर-कारक तपस्वी के रूप में उनका स्वागत किया। सिंह गुफावासी मुनि यह देखकर क्षुब्ध हुआ। आचार्य ने ब्रह्मचर्य की दुष्करता पर प्रकाश डाला किन्तु उसका क्षोभ शान्त न हुआ। द्वितीय वर्ष सिंह गुफावासी मुनि कोशा के यहाँ पहुँचा, किन्तु वेश्या का रूप देखते ही बह विचलित हो गया। वेश्या के कहने से वह रत्न-कंबल लेने हेतु नेपाल पहुँचा। वेश्या ने उस कंबल को गन्दी नाली में डालकर उसे प्रतिबोध दिया कि रत्नकंबल से भी संयम अधिक मूल्यवान है। सिंह गुफावासी मुनि को अपनी भूल मालूम हुई तथा गुरु के कथन का रहस्य भी ज्ञात हो गया। स्थूलभद्र का महत्व काम-विजेता के कारण ही नहीं, किन्तु पूर्वधर होने के कारण भी है। वीर सं० ११६ में इनका जन्म हुआ। तीस वर्ष की वय में दीक्षा ग्रहण की। चौबीस वर्ष तक साधारण मुनि पर्याय में रहे और पैतालीस वर्ष युगप्रधान आचार्य पद पर । निन्यानबे वर्ष की उम्र में वैभारगिरि पर्वत पर पन्द्रह दिन का अनशन कर वीर सं० २१५ में स्वर्गस्थ हुए ।
(९-१०) आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती-आर्य स्थूलभद्र के पट्ट पर उनके शिष्यरत्न आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती आसीन हुए। आर्य महागिरि उग्र तपस्वी थे। दस पूर्व तक अध्ययन करने के पश्चात् संघ संचालन का उत्तरदायित्व अपने लघु गुरुभ्राता सुहस्ती को समर्पित कर स्वयं साधना के लिए एकान्त में चले गये। आर्य महागिरि का जन्म वीर सं० १४५ में हुआ और दीक्षा १७५ में, २११ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए और २४५ में सौ वर्ष की आयु को पूर्ण कर दशार्णप्रदेशस्थ गजेन्द्रपुर तीर्थ में स्वर्गस्थ हुए। आर्य सुहाती का जन्म बीर सं० १९१ में हुआ, दीक्षा २१५ में हुई, आचार्य पद २४५ में और २६१ में सौ वर्ष की आयु पूर्ण कर स्वर्गस्थ हुए। आर्य सुहस्ती के समय अवन्ती निवासिनी भद्रा का पुत्र अवन्तीसुकुमाल, नलिनीगुल्म विमान का वर्णन सुनकर श्रमण बना और कंथार वन में शृगालिनी के उपसर्ग से मृत्यु को प्राप्त कर नलिनीगुल्म विमान में देव बना। आर्य सुहस्ती ने दुष्काल से ग्रसित दमक नामक भिखारी को प्रव्रज्या दी और समाधिपूर्वक आयु पूर्ण कर वह कुणाल पुत्र संप्रति हआ। आर्य सुहस्ती के दर्शन कर उसे जातिस्मरण हुआ और वह जैनधर्मावलम्बी बना । उसका हृदय दयालु था । उसने सात सौ दानशालाएँ खुलवायीं । जैनधर्म के प्रचार के लिए अपने विशिष्ट अधिकारियों को श्रमण वेष में आन्ध्रादि प्रदेशों में भेजा।"
(११-१२) आर्य सुस्थित और आर्य सुप्रतिबद्ध-आर्य सुहस्ती के बारह शिष्य थे। उनमें से आर्य सुस्थित और आर्य सुप्रतिबुद्ध ये दोनों आचार्य बने । ये दोनों काकन्दी नगरी के निवासी थे। राजकुलोत्पन्न व्याघ्रापत्य गोत्रीय सहोदर थे । कुमारगिरि पर्वत पर दोनों ने उग्रतप की साधना की । संघ संचालन का कार्य सुस्थित के अधीन था और वाचना का सुप्रतिबुद्ध के। हिमवन्त स्थविरावली के अनुसार इनके युग में कुमारगिरि पर एक लघु श्रमण सम्मेलन हुआ था और द्वितीय आगम वाचना भी हुई। इकतीस वर्ष की अवस्था में आर्य सुस्थित ने प्रव्रज्या ग्रहण की, सत्रह वर्ष तक सामान्य श्रमण रहे और अड़तालीस वर्ष तक आचार्य पद पर रहे और छियानवे वर्ष की अवस्था में वीर सं० ३३६ में कुमारगिरि पर्वत पर स्वर्गस्थ हुए। इसी तरह आर्य सुप्रतिबुद्ध का भी उसी वर्ष देहान्त हुआ।
आचार्य सुहस्ती तक के आचार्य गण के अधिपति और वाचनाचार्य दोनों ही होते थे। वे गण को संभालते भी थे और साथ ही गण की शैक्षणिक व्यवस्था भी करते थे। किन्तु आचार्य सुहस्ती के पश्चात गण की रक्षा करने वाले को गणाचार्य और श्रुत की रक्षा करने वाले को वाचनाचार्य कहा गया। गणाचार्यों की परम्परा गणधरवंश अपने अपने गण के गुरु-शिष्य क्रम से चलती रही। वाचनाचार्यों और युगप्रधान आचार्यों को परम्परा एक गण से सम्बन्धित नहीं है। जिस किसी भी गण में या शाखा में एक के पश्चात् दूसरे प्रभावशाली वाचनाचार्य या युगप्रधान हुए उनसे उनका क्रम संलग्न किया गया है ।
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