________________
४६
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड
...nnn.mmm..mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm..---
ब्रह्मचर्य के आधार-स्तम्भ
ब्रह्मचर्य की साधना की परिपूर्णता के लिए जैन शास्त्रकारों ने कुछ साधन और उपायों का वर्णन किया है। इसकी सफलता के लिए भगवान महावीर ने दस प्रकार की समाधि और ब्रह्मचर्य की नव बाडों का उपदेश दिया है । स्थानांगसूत्र में समाधि, गुप्ति और बाडों का वर्णन आया है। भगवान महावीर के पश्चात् उत्तरकालीन आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में इन्हें और भी विशद रूप से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । मूल आगम में और आगमकाल के बाद होने वाले श्वेताम्बर-दिगम्बर आचार्यों ने अपने-अपने समय में समाधि, गुप्ति एवं बाडों का विविध प्रकार से, मूल आगमों का आधार लेकर वर्णन किया है। ब्रह्मचर्य को स्थिर रखने के लिए एक अन्य प्रकार का जो उपदेश दिया गया है उसे भावना कहते हैं । आचार्य हेमचन्द्र के 'योगशास्त्र' में, आचार्य शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' में और स्वामी कार्तिकेय विरचित 'द्वादशानुप्रेक्षा' में विस्तार के साथ भावनाओं का वर्णन आया है। आचार्य उमास्वाति ने स्वप्रणीत 'तत्त्वार्थभाष्य' में ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाओं का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। तत्त्वार्थसूत्र के नवम अध्याय में द्वादश भावनाओं का अति सुन्दर वर्णन आया है। इसी भाष्य में ब्रह्मचर्य की स्थिरता के लिए दुःख-भावना का भी वर्णन आया है । ये सभी ब्रह्मचर्य की साधना के आधारस्तम्भ हैं। उपसंहार
मनुष्य का महान् जीवन ब्रह्मचर्य की आधारशिला पर ही टिका है। ब्रह्मचर्य ही शरीर को सशक्त और जीवन को शक्तिसम्पन्न बनाता है । विचारों में बल ब्रह्मचर्य की साधना से ही आता है। भारतीय संस्कृति में विशेषतः जैन संस्कृति में ब्रह्मचर्य को, परमधर्म, परमशौच, परमतप, परमजप कहकर उसमें सभी उच्च तत्त्वों के नैतिक सिद्धान्तों को समाहित किया है। ब्रह्मचर्य के सदभाव में सब साधनाएँ सफल होती है, उसके अभाव में सब विफल होती हैं। पर-भाव से हटकर स्वरूप में लीनता ही पूर्ण ब्रह्मचर्य है और यही मुक्ति का साक्षात् कारण है । ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला समस्त लौकिक कल्याणों के साथ परम लोकोत्तर कल्याण का भी भागी बनता है। ब्रह्मचर्य के प्रभाव से मनुष्य नीरोग, कान्तिमान, दीर्घजीवी, यशस्वी, तेजस्वी बनता है। ब्रह्मचर्य की साधना वासनाजय की साधना है। इसका अर्थ है-बृहत् आदर्श । सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टि से भी हमारे जीवन में बृहत् आदर्श और बृहत् कल्पना आनी चाहिए क्योंकि उसके आने पर ही ब्रह्मचर्य की प्राणदायिनी साधना सफल हो सकती है । उत्तराघ्ययन सूत्र के सोलहवें अध्ययन की सत्तरवी गाथा में कहा गया है
एस धम्मे धुवे निच्चे सासए जिणदेसिए ।
सिद्धा सिझन्ति चाणेण सिज्झिस्सन्ति तहावरे ॥ यह अर्थात् ब्रह्मचर्यधर्म ध्रव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनदेशित है अर्थात् जिनों द्वारा उपदिष्ट है। इसी धर्म के पालन से अनेक जीव सिद्ध बन गये, वर्तमान में बन रहे हैं और भविष्य में भी बनेंगे । तथास्तु !
eve goat arut EVEVA EELAVE:AVLEEVEEVEEVSEER
&EVEZETETE CEST
जिस प्रकार गन्दे पानी को एक स्थान पर केन्द्रित करके विविध औषधियों आदि से उसे शुद्ध, स्वच्छ और जन्तुरहित करके पीने योग्य बनाया जाता है, उसी प्रकार मन की वासना तथा विकारों को ब्रह्मचर्य की साधना, भावना और विचारणा द्वारा उनका परिष्कार कर जीवन को पवित्र और निर्दोष बनाया जाता है। वृत्तियों का शुद्धीकरण और जीवनी शक्ति का ऊर्वीकरण ब्रह्मचर्य द्वारा सम्भव है।
रेसलर
seeeeeeeeeeeeeeeeeeee पुष्कर वाणी Ceces
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org