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जैन-संस्कृति में ब्रह्मचर्य एवं आहार-शुद्धि
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आयु, जीवनशक्ति, बल, आरोग्य, सुख एवं प्रीति को बढ़ाने वाले तथा रसीले, चिकने, जल्दी खराब न होने वाले एवं हृदय को पुष्ट बनाने वाले भोज्य पदार्थ सात्त्विक प्रकृति वाले मनुष्यों को प्रिय होते हैं, अत: वे सात्त्विक कहलाते हैं।
अति कडुवे, अति खट्टे, अति नमकीन अति उष्ण तीखे, रूखे, जलन पैदा करने वाले दुख-शोक एवं रोग उत्पन्न करने वाले भोज्य पदार्थ राजस प्रकृति वाले मनुष्य को प्रिय होते हैं । अतः ये राजस कहलाते हैं ।
बहुत देर का रखा हुआ, रसहीन, दुर्गन्धित, बासी, झूठा, अमेध्य, अपवित्र भोजन तामस प्रकृति वाले मनुष्यों को प्रिय होता है, अतः वह तामस कहलाता है।
___ इस प्रकार भोजन के भी तीन प्रकार हो जाते हैं—सात्त्विक भोजन, राजसिक भोजन और तामसिक भोजन । तामसिक भोजन करने वाले को निद्रा अधिक आती है। आलस्य और अनुत्साह छाया रहता है। वे जीवित भी मृतक के समान होते हैं। राजसी भोजन करने वाले को वासना (काम) अधिक सताती है किन्तु सात्त्विक भोजन करने वालों के विचार प्रायः पवित्र एवं निर्मल होते हैं।
मांस, मछली, अण्डे और मदिरा आदि नशीले पदार्थ तामसिक भोजन में परिगणित किये जाते हैं। आज के युग में मांस, मदिरा और अण्डों का बहुत प्रचार है। मांस का शोरबा, अण्डों का आमलेट, अहिंसक कहलाने वाले समाज में तीव्र गति से फैल रहा है किन्तु याद रखें कि निसर्ग की गोद में पले हुए मनुपुत्र का यह नैसर्गिक भोजन नहीं है यह उसके स्वभाव (Nature) के विरुद्ध है। विश्व के सभी धर्मों ने मांसाहार का डटकर विरोध किया उसे अप्राकृतिक (Unnatural) कहकर मानव-जाति को उससे बचाने का प्रयत्न सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। राम, कृष्ण, महावीर बुद्ध, नानक, कबीर आदि सभी ने शाकाहार को पुरस्कृत किया है । गुरु नानक कहते हैं
मांस मांस सब एक है मुर्गी हिरनी गाय ।
आँख देख नर खात है वे नरकहिं जाय ॥ . भारतीय आयुर्वेद या विदेशी औषध विज्ञान (Medical Science) भी यह नहीं कहता कि मांस मानव का स्वाभाविक भोजन है। डॉक्टर हेनरी विलियम टाल्वोट कहते हैं कि केलशियम, कार्बन, लोरीन, क्लोरीन, सिलीकन आदि सोलह तत्त्व हमारे शरीर-निर्माण के लिए उत्तरदायी हैं, वे सभी शाकाहार में उपलब्ध हैं । यही भोजन हमारे आन्तरिक एवं बाह्य शरीर को दैविक जीवनी शक्ति से ओत-प्रोत कर सकता है। मांसाहार से जीवन सफल बनने के बजाय कषाय और वासनाएँ बढ़कर उसको नष्ट कर डालते हैं। डॉक्टर लाटवोट, सर हेनरी टाम्पसन, डॉक्टर एम० बडोबेयली, डॉक्टर जोजिया, ओल्डफील्ड, आदि सभी प्रसिद्ध डॉक्टरों ने मांसाहार का निषेध करके उसे अप्राकृतिक और हानिकारक बताया है । एक वैज्ञानिक का विचार है कि मांस, मदिरा और अण्डों के कारण ही आज के युग में बहुत से रोगों का सूत्रपात्र हुआ है। जैसे-जैसे मांस-मदिरा आदि तामसिक भोजन का प्रभाव बढ़ा है वैसे-वैसे मनुष्यों के शरीर में विभिन्न रोगों की उत्पत्ति अधिकाधिक बढ़ी है। औषधियों के रूप में भी मांसाहार बढ़ता जा रहा है। मांसाहारी के जीवन में करुणा का स्रोत मन्द होकर, क्रूरता प्रवेश करती है । डॉ० अल्बर्ट स्वाईत्सर ने कहा है कि संस्कृति के पतन का मूल कारण है कि मनुष्य जीवन के प्रति आदर, (Reverence for Life) गँवा बैठा है । संयम बढ़ाने के लिए, ब्रह्मचर्य की साधना के लिए इस प्रकार के तामसिक आहार का त्याग सर्वप्रथम आवश्यक चीज बन जाता है। ब्रह्मचर्य के साधक के लिए यह अत्यावश्यक है कि वह शुद्ध एवं सात्त्विक भोजन का लक्ष्य रखे । तामसिक और राजसिक भोजन साधना में विघ्नकर्ता है । जैनशास्त्रों के अनुसार अतिभोजन और अतिस्निग्ध भोजन प्रणीत-भोजन भी उस साधक के लिए त्याज्य है जो ब्रह्मचर्य की पूर्ण साधना करना चाहता है। योगशास्त्र में कहा गया है कि अतिभोजन
और अतिअल्पभोजन दोनों से योग की साधना नहीं की जा सकती । खटाई, मिटाई, मिर्च और मसाले सभी शरीर में विकृति लाने वाले, साधना में बाधक हैं । ये सभी उत्तेजक हैं, उत्तेजना लाने वाले हैं अतः भोजन का विवेक आवश्यक ही नहीं, परमावश्यक है । स्वस्थ जीवन के लिए भी आहार-शुद्धि अपना विशेष महत्व रखती है। क्योंकि कहा भी हैSound mind in a Sound body. स्वस्थ मन स्वस्थ शरीर में ही सम्भव है। आहार-विशुद्धि के साथ-साथ, आसन प्राणायाम आदि भी ब्रह्मयोग की साधना में पोषक है। इन्द्रियसंयम और आहारसंयम का घनिष्ठ सम्बन्ध है । आहार संयम से ही इन्द्रियसंयम फलित होता है। अनियमित आहार, अतिआहार और अल्पआहार तीनों शरीर के लिएहानिप्रद हैं । अतिआहार से सभी धातु विषम हो जाते हैं । अतः आहार-परिज्ञान सभी साधकों को होना आवश्यक है।
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