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जैन-संस्कृति में ब्रह्मचर्य एवं आहार-शुद्धि
भगवान महावीर की उपर्युक्त वाणी को आचार्य शुभचन्द्र भी प्रकारान्तर से दुहरा रहे हैं :
एकमेव व्रतं श्लाघ्यं ब्रह्मचर्य जगत्त्रये । यद्-विशुद्धि समापन्नाः पूज्यन्ते पूजितैरपि ।
-ज्ञानार्णव ब्रह्मचर्य ही तीनों लोक में एकमात्र श्लाघनीय है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए काम के वेग को रोकना है । यह वेग बड़ा ही भयंकर है। जब आता है तो बड़ी-बड़ी शक्तियाँ भी लाचार हो जाती हैं । वे महापुरुष धन्य हैं जो इस वेग पर नियन्त्रण रखते हैं और मन को अपना दास बनाकर रखते हैं। महाभारत में व्यासजी ने कहा है -
वाचो वेगं, मनसः क्रोध-तेगं. विधित्सा, वेगमुदरोपत्थ-वेगम्।।
एतान् वेगान् यो विषहे दुदीर्णास्तं मन्येऽहं ब्राह्मणं वै मुनि च ॥–महा. शान्ति. २६६/१४ जो पुरुष वाणी के वेग को, मन के वेग को, क्रोध के वेग को, काम करने की इच्छा के वेग को, उदर के वेग को, उपस्थ (काम-वासना) के वेग को रोकता है, उसको मैं ब्रह्मवेत्ता मुनि समझता हूँ। ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल सम्भोग में वीर्य का नाश न करते हुए उपस्थ इन्द्रिय का संयम रखना ही नहीं है। ब्रह्मचर्य का क्षेत्र बहुत व्यापक है। अतः उपस्थेन्द्रिय के संयम के साथ-साथ अन्य इन्द्रियों का निरोध करना भी अत्यावश्यक है। वह जितेन्द्रिय साधक ही पूर्ण ब्रह्मचर्य पाल सकता है, जो ब्रह्मचर्य के नाश करने वाले, उत्तेजक पदार्थों के खाने, कामोद्दीपक दृश्यों को देखने और इस प्रकार की वार्ताओं को सुनने तथा ऐसे गन्दे विचारों को मन में लाने से बचता है । जैन परम्परा के तत्त्वचिंतकों ने ब्रह्मचर्य व्रत को स्थिर रखने के लिए जो शोध एवं खोज की है, जो नियम और उपनियम बनाये हैं, वे अद्भुत एवं विलक्षण हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने ब्रह्मचर्य की साधना के लिए दस प्रकार के मैथुन से विरत होने का उपदेश दिया है
शरीर का अनुचित अर्थात् कामोत्तेजक शृंगार आदि करना। २. पौष्टिक एवं उत्तेजक रसों का सेवन करना । ३. वासनामय नृत्य गीत आदि देखना सुनना । ४. स्त्री के साथ संसर्ग-घनिष्ट परिचय रखना। ५. स्त्री-सम्बन्धी संकल्प रखना। ६. स्त्री के मुख, स्तन आदि अंग-उपांग निरखना । ७. स्त्री के अंगदर्शन सम्बन्धी संस्कार मन में रखना। ८. पूर्व भोगे हुए काम-भोगों को स्मरण करना। है. भविष्य के काम-भोगों की चिन्ता करना। १०. परस्पर रतिकर्म अर्थात सम्भोग करना ।
ब्रह्मचर्य-पालन के लिये उक्त बातों का स्पष्ट निषेध किया गया है। भारत के धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि स्मरण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय और संभोग-इन आठ प्रकारों के मैथुनों का ब्रह्मचर्य के साधकों के लिये सदैव परित्याग करना चाहिये । जैनधर्म में "सत्य, तप, प्राणिदया और इन्द्रिय-निरोधरूप ब्रह्मचर्य के अनुष्ठान को ब्रह्मचर्य कहा गया है। वस्तुतः कायिक, वाचिक, एवं मानसिक समस्त प्रकार की वासनाओं का परित्याग करना ही 'ब्रह्मचर्य है।
ब्रह्मचर्य जीवन की साधना है, अमरत्व की साधना है। ब्रह्मचर्य जीवन है, वासना मृत्यु । ब्रह्मचर्य अमृत है, वासना विष । ब्रह्मचर्य अनन्त शान्ति है, अनुपम सुख है । वासना अशान्ति का अथाह अर्णव है । ब्रह्मचर्य शुद्ध ज्योति है, वासना कालिमा। ब्रह्मचर्य ज्ञान-विज्ञान है, वासना भ्रान्ति एवं अज्ञान । ब्रह्मचर्य अजेय शक्ति है, अनन्त बल है, वासना जीवन की कायरता, दुर्बलता एवं नपुंसकता है । ब्रह्मचर्य, शरीर की मूल शक्ति है । जीवन का ओज है । जीवन का तेज है । ब्रह्मचर्य अनुत्तर धर्म है। संयम के द्वारा वह सुरक्षित है, उसकी सुरक्षा का द्वार है-ध्यान, और उसकी आगल है अध्यात्म । भगवान महावीर के शब्दों में ब्रह्मचर्य भगवान् है । प्रश्नव्याकरणसूत्र में इसका उल्लेख आया है
"तं बंभं भगवंतं गह-गण-णक्खत-तारगाणं जहा उडवइ, मणि-मुत्त-सिलप्पवाल-रत्तरयणागराणं य जहा समुद्दो, वेरुलिओ चेव जहा मणिणं, जहा मउडो चेव भूसणाणं, वत्थाणं चेव खोमजुयलं, अरविदं चैव पुप्फजेट्ठ, गोसीसं चैव चंदणाणं, हिमव चेव ओसहीणं, सीतोदा चेव निन्नगाणं, उदहीसु जहा सयंभूरमणो........-प्रश्न व्याकरण, संवरद्वार, ४
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