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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड
अवरोध तथा वासनाओं के उन्मूलन को 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं। योगदर्शन में 'ब्रह्मचर्य' का प्रयोग संकुचित अर्थ में किया गया है-"ब्रह्मचर्य गुप्तस्येन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः।" अथर्ववेद में कहा गया है कि :
ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्र हि रक्षति । आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते ॥
अर्थववेद ११/५/४ अर्थात् ब्रह्मचर्य एवं तप से राजा राष्ट्र की रक्षा करता है, ब्रह्मचर्य के द्वारा ही आचार्य शिष्यों के शिक्षण की योग्यता अपने में सम्पादन करते हैं । उपनिषदों में ब्रह्मचर्य का विशेष महत्व प्रतिपादन किया गया है :
तेषामेवैष ब्रह्मलोको येषां तपो ब्रह्मचर्य, येषु सत्यं प्रतिष्ठितम् ।
- प्रश्न उपनिषद् ब्रह्मलोक उनका है जो तप, ब्रह्मचर्य तथा सत्य में निष्ठा रखते हैं। छांदोग्य उपनिषद् में तो यहां तक कहा गया है कि यज्ञ, उपवास आदि जितने भी पवित्र कर्म हैं वे बिना ब्रह्मचर्य के निरर्थक हो जाते हैं । गोपथ ब्राह्मण में भी यह प्रश्न पूछकर स्पष्ट किया गया है :--
किं पुण्यमिति ? ब्रह्मचर्यमिति, किं लोक्यमिति ? ब्रह्मचर्य मेवेति ।
-१/२/५ अर्थात्-पवित्र क्या है ? ब्रह्मचर्य है। दर्शनीय क्या है ? ब्रह्मचर्य है। वैसे ही और भी अनेक वैदिक सूक्तियों के रूप में ब्रह्मचर्य का वर्णन पाया गया है । शक्ति का प्रार्दुभाव भी ब्रह्मचर्य से ही सम्भव है-महर्षि पतंजलि ने अपने योगशास्त्र में कहा है "ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः” अर्थात् ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होने पर ही वीर्य (शक्ति, बल) का लाभ होता है। मन-वचन-काया से समस्त इन्द्रियों का संयम करना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य एक ऐसा धर्म है, जिसकी पवित्रता, पावनता और स्वच्छता से कोई इन्कार नहीं कर सकता। विश्व के समस्त धर्मों में ब्रह्मचर्य एक पावन और पवित्र धर्म माना गया है। इसकी पवित्रता से सभी प्रभावित हैं। वैदिक परम्परा में आश्रम व्यवस्था स्वीकार की गई है। चार आश्रमों में ब्रह्मचर्य सबसे पहला आश्रम है। वैदिक परम्परा का यह विश्वास रहा है कि मनुष्य को अपने जीवन का भव्य प्रासाद ब्रह्मचर्य की नींव पर खड़ा करना चाहिए । ज्ञान और विज्ञान की साधना एवं आराधना बिना ब्रह्मचर्य की साधना के नहीं की जा सकती। बौद्ध परम्परा में भी ब्रह्मचर्य को बड़ा महत्व दिया गया है। बोधिलाभ प्राप्त करने के लिए मार को जीतना आवश्यक है, वासना पर संयम रखना आवश्यक है। जो व्यक्ति अपनी वासना पर संयम नहीं रख सकता, वह बुद्ध नहीं बन सकता ।
भारतीय धर्मों के अतिरिक्त ईसाईधर्म में ब्रह्मचर्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उनके ग्रन्थों में भी एक नहीं, अनेक स्थानों पर व्यभिचार, विलासिता और विषय-वासना आदि दुर्गुणों की भर्त्सना की गई है । यूनान के महान दार्शनिक पाइथागोरस ने अपने युग की मानव जाति को सम्बोधित करते हुए कहा था, No man is free who cannot command himself (मैं उस व्यक्ति को स्वतन्त्र नहीं कह सकता जो अपने आप पर नियन्त्रण, संयम का नियन्त्रण न कर सके ।) इस प्रकार ईसाईधर्म में भी ब्रह्मचर्य पर बल दिया गया है। मुस्लिमधर्म में भी व्यभिचार, वासना विलास का तीव्र विरोध किया गया है। ऐसे दुर्गुणग्रस्त व्यक्ति का जीवन गहित और निन्दनीय समझा जाता है। दुनिया का कोई भी धर्म या संस्कृति क्यों न हो, सबने एक स्वर से ब्रह्मचर्य की महानता स्वीकार की है।
जैन संस्कृति में ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा-जैन संस्कृति का वज्र आघोष है कि ब्रह्मचर्य में एक अपार बल, अमित शक्ति और एक प्रचण्ड पराक्रम है। ब्रह्म का अर्थ है परमात्मा, आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए जो चर्या=गमन = प्रयत्न किया जाता है उसका नाम ब्रह्मचर्य है। शारीरिक और आध्यात्मिक सभी शक्तियों का आधार ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य एक आध्यात्मिक स्वास्थ्य है, जिसके द्वारा मानव-समाज पूर्ण सुख और शान्ति को प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य की स्तुति में बहुत कुछ कहा गया है, लिखा गया है, और गाया गया है । ब्रह्मचर्य की महत्ता के विषय में स्वयं भगवान महावीर कहते हैं कि देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी दैवी शक्तियाँ ब्रह्मचारी के चरणों में प्रणाम करती हैं, क्योंकि ब्रह्मचर्य की साधना बड़ी ही कठोर साधना है। जो ब्रह्मचर्य की साधना करते हैं, वस्तुतः वे एक बहुत बड़ा दुष्कर कार्य करते हैं ।
देव-वाणव-गंधव्वा, जक्ख-रक्खस किन्नरा। बंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करन्ति ते ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र अ. १६
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