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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड
नीतिवाक्यामृत में प्रतिपादित राजनीति समग्र रूप में प्राचीन भारतीय राजनीति का एक आदर्श रूप है। इसे जैन राजनीति मानने में भी किसी प्रकार का संकोच नहीं हो सकता । सोमदेव स्वयं जैन साधु थे। इसलिए उन्होंने अपने ग्रन्थ में जैन-धर्म के उच्च आदर्शों का पूरा ध्यान रखा है।
नीतिवाक्यामृत में शासन व्यवस्था से सम्बन्ध रखने वाले सभी पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। राज्य के सप्तांग-स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोश, बल एवं मित्र के लक्षणों पर विशद प्रकाश डाला गया है। राजधर्म की भी विस्तार से व्याख्या-विवेचना की गयी है।
सोमदेव ने धर्मनीति, अर्थनीति और समाजनीति को राजनीति का अभिन्न अंग माना है। इसलिए राजनीति के साथ इनका भी उन्होंने विशद विवेचन किया है। डॉ० शर्मा ने लिखा है कि नीतिवाक्यामृत "मानव-जीवन का विज्ञान और दर्शन है । यह वास्तव में प्राचीन नीति साहित्य का सारभूत अमृत है। मनुष्य मात्र को अपनी-अपनी मर्यादा में स्थिर रखने वाले राज्य प्रशासन एवं उसे पल्लवित, संवर्धित एवं सुरक्षित रखने वाले राजनीतिक तत्त्वों का इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है।"
नीतिवाक्यामृत के टीकाकार ने ग्रन्थ के नामकरण के सम्बन्ध में लिखा है कि 'इस ग्रन्थ के अमृत तुल्य वाक्यसमूह विजयलक्ष्मी के इच्छुक राजा की अनेक राजनीतिक विषयों, सन्धि, विग्रह, मान, आसन आदि में उत्पन्न हुई संदहे रूप महामूर्छा का विनाश करने वाले हैं, इसलिए इसका नाम नीतिवाक्यामृत रखा गया है।" मीतिवाक्यामृत के कतिपय विशेष सन्दर्भ राज्य का महत्त्व-नीतिवाक्यामृत के मंगलसूत्र में राज्य को नमस्कार किया गया
“अथ धर्मार्थकामफलाय राज्याय नमः ।" राज्य धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों की सिद्धि का अमोघ साधन है। इसलिए उसे नमस्कार है। राज्य के लिए दशवीं शताब्दी में इतना महत्त्व देने वाला यह एक मात्र उदाहरण है। सोमदेव जैसे जैन साधु की लेखनी से प्रसूत होने के कारण इसका और भी अधिक महत्व है। सोमदेव को धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक नीति के सम्मिश्रित रूप में तीर्थंकर ऋषभदेव की राजनीति का जो दाय परम्परा से प्राप्त हुआ था, उसे उन्होंने इस रूप में प्रस्तुत कर दिया।
धर्मनिरपेक्षता-आज से एक हजार वर्ष पूर्व धार्मिक संघर्ष के उस युग में धर्मनिरपेक्षता की बात सोमदेव जैसा समर्थ विचारक ही कह सकता था। नीतिवाक्यामृत का प्रथम समुद्देश धर्मसमुद्देश है, धर्मनिरपेक्षता के सम्बन्ध में उनकी नीति का स्पष्ट ज्ञान होता है। वे कहते हैं कि जिसकी जिस देवता में श्रद्धा हो, वह उसकी प्रतिष्ठा करे। (७/१७)
राज्य का अधिकारी-सोमदेव ने क्रम और विक्रम दोनों को राज्य का मेल बताया है।" क्रमागत राज्य भी विक्रम के अभाव में नष्ट हो जाता है । उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि भूमि पर कुलागत अधिकार किसी का नहीं है, किन्तु वसुन्धरा वीरों के द्वारा भोग्य है।
निरंकुश शासन का निषेध-राजतन्त्र में भी सोमदेव निरंकुश शासन के हिमायती नहीं हैं। उनके अनुसार राजा को मन्त्रिपरिषद् के मन्तव्यों की कदापि अवहेलना नहीं करनी चाहिए। यदि वह मन्त्रियों की उपेक्षा करता है तो वह राजा कहलाने के योग्य नहीं है।"
लोक हितकारी राज्य-सोमदेव ने लोक हितकारी राज्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। समृद्ध राष्ट्र की कल्पना उनका आदर्श है। पशु, धान्य, हिरण्य आदि सम्पत्ति से जो सुशोभित हो, वह राष्ट्र है। कृषि पशुपालन, व्यापार, वाणिज्य आदि में किस प्रकार प्रगति हो सकती है, इस विषय पर उन्होंने पर्याप्त प्रकाश डाला है। धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थों को समरूप से सेवन करना चाहिए।"
लोकनीति राजनीति-सोमदेव ने लोकनीति और राजनीति का समन्वय किया है। समाज की उन्नति में ही राष्ट्र की उन्नति है। लोक व्यवहार की दृष्टि से जो व्यवस्था महत्वपूर्ण है, उसका पूर्ण विवेचन सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत में किया है।
वर्ग-मेवहीन राजनीति-सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत में यद्यपि वर्णाश्रम व्यवस्था का वर्णन किया है किन्तु इस विषय में उनके विचार जैन परम्परा के अनुरूप बहुत उदार हैं। उन्होंने लिखा है कि जिस प्रकार सूर्य का दर्शन
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