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जैन राजनीति की दृष्टि से आदिपुराण के कतिपय सन्दर्भ विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । वे इस प्रकार हैं--- राजा का वृत्त - जिनसेन ने राजा का वृत्त या धर्म पाँच प्रकार का बताया है"
१. कुलानुपालन ।
२. मत्यनुपालन ।
३. आत्मानुपालन ।
४. प्रजानुपालन ।
५. समंजसत्व |
जिनसेन के इस विवरण से ज्ञात होता सर्वप्रथम ध्यान देना चाहिए । आत्मिक विकास के सकता है ।
जैन राजनीति
जिनसेन ने इनका विस्तार से वर्णन किया है। कुलाम्नाय तथा कुलोचित समाचार का परिरक्षण कुलानुपालन है ।" लोक तथा परलोकार्थ के हिताहित का विवेक मत्यनुपालन है ।" इसका प्रयोग अविद्या के दूर करने से ही हो सकता है । इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी अपायों से आत्मा की रक्षा करना आत्मानुपालन है ।" विष और शस्त्र आदि से रक्षा लोकापाय रक्षा है। परलोक सम्बन्धी अपायों से बचने का एकमात्र साधन धर्म है ।
जिनसेन ने लिखा है कि आत्मरक्षा करने के बाद राजा को प्रजानुपालन में प्रवृत्त होना चाहिए। यह राजाओं का मूलभूत गुण है। ग्वाले द्वारा गायों के रक्षण का दृष्टान्त देकर प्रजानुपालन की विस्तृत व्याख्या की गयी है।"
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युद्ध का अहिंसक प्रतिरोध- जिनसेन युद्ध के पूर्ण विरोधी हैं कारण है । उसमें बहुत-सी हानियाँ हैं और भविष्य के लिए दुखदायी हैं। सन्धि कर लेना चाहिए।"
है कि राजा को अपने बाह्य और आध्यात्मिक विकास के लिए उपरान्त ही वह उचित रूप से प्रजा के अनुपालन में प्रवृत्त हो
समंजसत्व के अन्तर्गत दुष्टनिग्रह और निग्रह योग्य शत्रु और पुत्र दोनों का समान भाव से राजा के स्वरूप और कर्तव्यों का उक्त विवरण जैन राजनीति की दृष्टि से एक आदर्श प्रधान के व्यक्तित्व का निदर्शन है। जिसका स्वयं का व्यक्तित्व आदर्श हो, वही आदर्श राजा या सकता है । राज्यतन्त्र और गणतन्त्र दोनों ही दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है ।
प्रजा के मन्तव्यों का मूल्य - राज्य के विभिन्न अंगों— अमात्य, पुरोहित आदि के माध्यम से प्रजा के मन्तव्यों का प्रशासन में मूल्यांकन राजतन्त्र में किया जाता है। जिनसेन ने एक स्थान पर बलवान् शत्रु के आक्रमण के समय वृद्धजनों की सम्मति लेने का स्पष्ट उल्लेख किया है।" लिखा है कि यदि कोई बलवान् राजा अपने राज्य के सम्मुख आवे तो वृद्ध लोगों के साथ विचारकर उसे कुछ देकर उसके साथ सन्धि कर लेना चाहिए ।
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शिष्ट अनुपालन आते हैं । ५ जिनसेन का कहना है कि राजा को निग्रह करना चाहिए ।
राजा या राज्य के राज्य का प्रधान हो
क्योंकि युद्ध बहुत से लोगों के विनाश का इसलिए कुछ देकर बलवान् शत्रु के साथ
कठोर दण्ड का निषेध — जिनसेन अत्यधिक कठोर दण्ड की सलाह नहीं देते। उनका कहना है कि जिस प्रकार यदि अपनी गायों के समूह में कोई गाय अपराध करती है तो उसका गोपालक उसे अंगछेदन आदि कठोर दण्ड नहीं देता प्रत्युत अनुरूप ही दण्ड देता है उसका नियन्त्रण करके उसकी रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए।"
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(e) सोमदेव सूरि का नीतिवाक्यामृत "कौटिल्य के अर्थशास्त्र के बाद सोमदेव सूरि का नीतिवाक्यामृत राजनीतिशास्त्र का अद्वितीय ग्रन्थ है। इसकी रचना सूत्रों में की गयी है । पूरा ग्रन्थ बत्तीस समुद्देशों में विभाजित है । कौटिल्य के अर्थशास्त्र की अपेक्षा संक्षिप्त, सरल और सहजग्राह्य होने के कारण यह ग्रन्थ दशवीं शती से लेकर दीर्घावधि तक राजाओं का सच्चा पथ-प्रदर्शक रहा है ।
सोमदेव ने अपने काव्य ग्रन्थ यशस्तिलक में भी राजनीति का विस्तार से वर्णन किया है किन्तु नीतिवाक्यामृत इस विषय का स्वतन्त्र ग्रन्थ है । जिस समय इस ग्रन्थ की रचना हुई, उस समय इसकी अत्यधिक आवश्यकता थी । हर्षवर्धन के बाद भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया था। राजा लोग अपने-अपने राज्यों की सीमा विस्तार के लिए अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहे थे । इस अव्यवस्था का लाभ उठाकर यवनों ने भारत पर अधिकार कर लिया । ऐसे अवसर पर सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत की रचना करके भारतीय नरेशों का पथ प्रदर्शन किया ।
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