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हिन्दी जन-काव्य में योगसाधना और रहस्यवाद
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भूधर धनि एही दिन दुर्लभ,
सुमति राखी विहसंत ॥ नवलराम ने भी ऐसी ही होली खेलने का आग्रह किया है। उन्होंने निज परणति रूप सुहागिन और सुमतिरूप किशोरी के साथ यह खेल खेलने के लिए कहा है। ज्ञान का जल भरकर पिचकारी छोड़ी, क्रोध-मान का अबीर उड़ाया, राग गुलाल की झोली ली, संतोषपूर्वक शुभभावों का चन्दन लिया, समता की केसर घोली आत्मा की चर्चा की 'मगनता' का त्यागकर करुणा का पान खाया और पवित्र मन से निर्मल रंग बनाकर कर्म मैल को नष्ट किया। अन्यत्र एक होली में वे पुनः कहते हैं-"ऐसे खेल होरी को खेलिरे" जिसमें कुमति ठगोरी को त्यागकर सुमति-गोरी के साथ होली खेल । आगे नवलराम यह भाव दर्शाते हैं कि उन्होंने इसी प्रकार होली खेली जिससे उन्हें शिव पंढी का मार्ग मिल गया ।
"ऐसे खेल होरी को खेलि रे ॥ कुमति ठगोरी को अब तजि करि, तु साथ सुमति गोरी को।
नवल इसी विधि खेलत हैं,
ते पावत हैं मग शिव पौरी को ॥३ बुधजन भी चेतन को सुमति के साथ होली खेलने की सलाह देते हैं-"चेतन खेल सुमति संग होरी।" कषायादि को त्यागकर, समकित की केशर घोलकर, मिथ्या की शिला को चूर-चूरकर निज गुलाल की झोरी धारणकर शिव गौरी को प्राप्त करने की बात कही है। कवि को विशुद्धात्मा की अनुभति होने पर वह यह भी कह देते हैं
- निजपुर में आज मची होरी । उमगि चिदानंदजी इत आये, इत आई समती गोरी । लोक लाज कुलकानि गमाई, ज्ञान गुलाल भरी झोरी। समकित केसर रंग बनायो, चारित की पिचुकी छोरी। गावत अजपा गान मनोहर, अनहद झरसौं वरस्यो री ।
देखन आये बुधजन भीगे, निरख्यौ ख्याल अनोखी री ॥ आध्यात्मिक रहस्यभावना से ओतप्रोत होने पर कवि का चेतनराय उसके घर वापिस आ जाता है और फिर वह उसके साथ होली खेलने का निश्चय करता है-"अब घर आये चेतनराय, सजनी खेलौंगी मैं होरी।" कुमति को दूरकर सुमति को प्राप्त करता है, निज स्वभाव के जल से हौज भरकर निजरंग की रोली घोलता है, शुद्ध पिचकारी लेकर निज मति पर छिड़कता है और अपनी अपूर्व शक्ति को पहचान लेता है
"अब घर आये चेतनराय, सजनी खेलौंगी मैं होरी।
आरस सोच कानि कुल हरिक, धरि धीरज बरजोरी ॥ बुरी कुमति की बात न बूझे, चितवत है मो ओरी, वा गुरुजन की बलि-बलि जाऊं, दूरि करी मति भोरी। निज सुभाव जल हौज भराऊँ, घोरु निजरंग रोरी। निज ल्यौं ल्याय शुद्ध पिचकारी, छिरकन निजमति दोरी ॥ गाय रिझाय आप वश करिक, जावन द्यों नहिं पोरी।
बुधजन रचि मचि रहूं निरंतर, शक्ति अपूरब मोरी ॥सजनी ॥ दौलतरामजी का मन भी ऐसी ही होली खेलता है। उन्होंने मन के मृदंग को सजाकर, तन को तंबूरा बनाकर, सुमति की सारंगी बजाकर, सम्यक्त्व का नीर भरकर, करुणा की केशर घोलकर ज्ञान की पिचकारी से पंचेन्द्रिय सखियों के साथ होली खेली । आहारादिक चतुर्दान की गुलाल लगाई, तप के मेवा को अपनी झोली में रखकर यश की अबीर उड़ाई और अन्त में भव-भव के दुःखों को दूर करने के लिए 'फगुआ शिव होरी' के मिलन की कामना करते है।" कवि ने इसो प्रसंग में बड़े ही सुन्दर ढंग से यह बताने का प्रयत्न किया है कि सम्यग्ज्ञानी जीव कर्मों की होली किस प्रकार खेलता है
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