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श्री पुष्करमुनि अभिनन्वन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
गुरु के वचन मृदंग बजत हैं, नय दोनों डफताल टकोरी, संजम अतर विमल व्रत चोबा, भाव गुलाल भरै भर झोरी॥ धरम मिठाई तप बहु मेवा, समरस आनन्द अमल कटोरी,
द्यानत सुमति कहै सखियन सों, चिरजीवो यह जुग जुग जोरी ॥५॥ इसी प्रकार कविवर भूधरदास का भी आध्यात्मिक होली का वर्णन देखिये
"अहो दोऊ रंग भरे खेलत होरी ॥१॥ अलख अमूरति की जोरी॥ इतमैं आतम राम रंगीले, उतमैं सुबुद्धि किसोरी। या के ज्ञान सखा संग सुन्दर, वाकै संग समता गोरी ॥२॥ सुचि मन सलिल दया रस केसरि, उदै कलस मैं घोरी। सुधी समझि सरल पिचकारी, सखिय प्यारी भरि भरि छोरी ॥३॥ सतगुरु सीख तान धर पद की, गावत होरा होरी। पूरव · बंध अबीर उड़ावत, दान गुलाल भर झोरी ॥४॥ भूधर आज बड़े भागिन, सुमति सुहागिन मोरी। सो ही नारि सुलछिनी जग मैं
जासों पति नै रति जोरी ॥५॥ एक अन्य कृति में भूधरदास अभिव्यक्त करते हैं कि उसका चिदानन्द जो अभी तक संसार में भटक रहा था, घर वापिस आ गया है। यहाँ भूधर स्वयं को प्रिया मानकर और चिदानन्द को प्रीतम मानकर उसके साथ होली खेलने का निश्चय करते हैं-"होरी खेलूंगी घर आये चिदानन्द" क्योंकि मिथ्यात्व की शिशिर समाप्त हो गई, काल-लब्धि का बसन्त आया, बहुत समय से जिस अवसर की प्रतीक्षा थी, सौभाग्य से वह आ गया, प्रिय के विरह का अन्त हो गया अब उसके साथ फाग खेलना है। कवि ने यहाँ श्रद्धा को गगरी बनाया, उसमें रुचि का केशर घोला, आनन्द का जल डाला और फिर उमंग में भरकर प्रिय पर पिचकारी छोड़ी। कवि अत्यन्त प्रसन्न है कि उसकी कुमति रूप सौत का वियोग हो गया। वह चाहता है कि इसी प्रकार सुमति बनी रहे--
'होरी खेलूगी घर आए चिदानन्द ।
शिशिर मिथ्यात गई अब, आई काल की लब्धि वसन्त ।।होरी।।
पीय संग खेलनि कौं, हम सइये तरसी काल अनन्त ।।
भाग जग्यो अब फाग रचानी
आयो विरह को अन्त ।। सरधा गागरि में रुचि रूपी
केसर घोरि तुरन्त ।। आनन्द नीर उमंग पिचकारी,
छोडूगी नीकी भंत ॥ आज वियोग कुमति सौतनिकों,
मेरे हरष अनन्त ।।
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