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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
इस प्रकार यह यद्यपि निर्विवाद है कि आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के विविध रूपों का विकास उनके प्राकृत एवं अपभ्रन्श रूपों से हुआ किन्तु उपयुक्त कारणों से हम इस विकास योत्रा का पूरा लेखा-जोखा प्रस्तुत नहीं कर सकते ।
अतएव प्राकृत एवं अपभ्रन्श के साहित्यिक भाषा रूपों की सामान्य उच्चारणगत अभिरचनाओं, व्याकरणिक व्यवस्थाओं एवं संरचनाओं ने आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं को जिस प्रकार सामान्य रूप से प्रभावित किया है यहाँ केवल उसी प्रभाव की चर्चा प्रस्तुत की जा रही है। ध्वन्यात्मक
(१) प्राकृत अपभ्रन्श की ध्वन्यात्मक अभिरचना एवं प्रमुख स्वर-व्यंजन ध्वनियां आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की केन्द्रवर्ती भाषाओं में सुरक्षित हैं। इसके विपरीत सीमावर्ती आर्यभाषाओं में प्राकृत अपभ्रश ध्वन्यात्मक अभिरचना से भिन्न ध्वन्यात्मक विशेषताओं का भी विकास हुआ है।
इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उदाहरण द्रष्टव्य हैं
(क) असमिया में दन्त्य एवं मूर्धन्य व्यंजनों की भेदकता एवं वैषम्य समाप्त हो गया है । तालव्य व्यंजन दन्त्य संघर्षों में तथा दन्त्य संघर्षी 'स्' का कोमल तालव्य संघर्षी के रूप में विकास हुआ है।।
(ख) मराठी में 'च' वर्गीय ध्वनियों का विकास दो रूपों में हुआ है तथा स्वरों की अनुनासिकता का लोप हो गया है।
(ग) केन्द्रवर्ती भाषाओं में पूर्व भारतीय आर्यभाषा की परम्परानुरूप महाप्राण ध्वनियों का उपयोग होता है किन्तु अन्य भाषाओं में सघोष महाप्राण व्यंजनों एवं हकार का भिन्न-भिन्न रूपों में उच्चारण होता है । इस दृष्टि से डा० सुनीतिकुमार चाटुा पूर्वी बंगला में कण्ठनालीय स्पर्श के साथ-साथ आंशिक रूप में विशिष्ट स्वर विन्यास का व्यवहार तथा पंजाबी में स्वर विन्यास परिवर्तन मानते हैं तथा राजस्थानी में ह-कार की जगह कण्ठनालीय सर्श ध्वनि तथा सघोष महाप्राणों के आश्वसित उच्चारण की उपस्थिति से यह अनुमान व्यक्त करते हैं कि राजस्थानी तथा गुजराती में इस प्रकार का उच्चारण कम से कम अपभ्रन्श काल की रिक्थ तो अवश्य ही है।"
(घ) सिन्धी एवं लहंदा में अन्तःस्फोटात्मक ध्वनियों का विकास हआ है।
(ङ) पंजाबी में तान का विकास हुआ तथा सघोष महाप्राण व्यंजन तानयुक्त अल्पप्राण व्यंजनों के रूप में परिवर्तित हो गए। इस सम्बन्ध में डा० सुनीतिकुमार चाटुा ने डा. सिद्धेश्वर वर्मा के मत का उल्लेख किया है कि श्रति की दृष्टि से पंजाबी में 'भ, घ, ढ' आदि के परिवर्तन में महाप्राणता सुनायी नहीं पड़ती; बाद के स्वर के साथ श्वास का कुछ परिमाण संलग्न रहता है, जो उसके स्वर-विन्यास की एक विशिष्टता माना जा सकता है।
(२) 'कृ' का उच्चारण पालि युग में ही समाप्त हो गया था । इसका उच्चारण आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में 'र', 'रि' एवं 'रु' रूप में हुआ। आज भी 'रि' में 'र' के बाद का 'इ' का उच्चारण अग्र की अपेक्षा मध्योन्मुखी होता है।
(३) 'ष' वर्ण का मूर्धन्य उच्चारण किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा में नहीं होता।
(४) अपभ्रन्श के 'ए' एवं 'ओ' के ह्रस्व उच्चारण आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सुरक्षित हैं। इसी कारण 'ए' 'ऐ' 'औ' 'औं' का उच्चारण मूल स्वरों के रूप में होने लगा है।
(५) हिन्दी, उर्दू, सिन्धी, पंजाबी, उड़िया, आदि में मूर्धन्य उत्क्षिप्त 'ड' एवं 'ढ' विकसित हो गयी है।
(६) मध्य भारतीय आर्यभाषा काल में जिन शब्दों में समीकरण के कारण एक व्यंजन का द्वित्व रूप हो गया था, अपभ्रन्श के परवर्ती युग में एक व्यंजन शेष रह गया तथा उसके पूर्ववर्ती अक्षर के स्वर में क्षतिपूरक दीर्धीकरण हो गया। सिन्धी, पंजाबी एवं हिन्दी की बांगरु एवं खड़ी बोली के अतिरिक्त सभी आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में यह प्रवृत्ति सुरक्षित है । यथा
कर्म>कम्म>कम्मु>कामुकाम्
(७) अपभ्रन्श में अन्त्य स्वर के ह्रस्वीकरण एवं लोप की प्रवृत्ति मिलती है। 'पासणाह चरिउ से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैंमहिला-महिल १।१०।१२।
जंघा>जंघ ३।२।। गृहिणी>घरिणि १।१०।४ ।
गम्भीर>गहिर ३३१४।२। पाषाण>पाहण २।१२।।
पुंडरीक>पुंडरिय १७।२१।२।
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