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प्राकृत एवं अपभ्रश का आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं पर प्रभाव
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मराठी, हिन्दी, गुजराती, बंगला आदि आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में केवल थोड़े से उच्चारणगत भेद ही नहीं हैं अपितु इनमें भाषागत भिन्नता भी है पारस्परिक संरचनात्मक एवं व्यवस्थागत अन्तर है तथा पारस्परिक अवबोधन का अभाव है। आज कोई मराठीभाषी मराठी भाषा के द्वारा मराठी से अपरिचित हिन्दी, बंगला, गुजराती आदि किसी आधुनिक भारतीय आर्यभाषा के व्यक्ति को भाषात्मक स्तर पर अपने विचारों, संवेदनाओं का बोध नहीं करा पाता । भिन्न भाषा-भाषी व्यक्ति एक-दूसरे के अभिप्राय को संकेतों, मुखमुद्राओं, भावभंगिमाओं के माध्यम से भले ही समझ जावे भाषा के माध्यम से नहीं समझ पाते । किन्तु अर्धमागधी का विद्वान मागधी अथवा शौरसेनी अथवा महाराष्ट्री प्राकृत को पढ़कर उनमें अभिव्यक्त विचार को समझ लेता है । इस रूप में जो साहित्यिक प्राकृत रूप उपलब्ध हैं उनका नामकरण भले ही सुदूरवर्ती क्षेत्रों के आधार पर हुआ हो किन्तु तत्त्वतः ये उस युग के जन-जीवन में उन विविध क्षेत्रों में बोली जाने वाली भिन्न-भिन्न भाषायें नहीं हैं और न ही आज की भांति इन क्षेत्रों में लिखी जाने वाली भिन्न साहित्यिक भाषायें हैं, प्रत्युत एक ही मानव अथवा साहित्यिक प्राकृत के क्षेत्रीय रूप हैं।
ऐसा नहीं हो सकता कि दसवीं-बारहवीं शताब्दी के बाद तो भिन्न-भिन्न भाषायें विकसित हो गयी हों किन्तु उसके पूर्व प्राकृत युग में पूरे क्षेत्र में भाषात्मक अन्तर न रहे हो । आधुनिक युग में 'भारतीय आर्यभाषा क्षेत्र' में जितने भाषात्मक अन्तराल हैं, उसकी अपेक्षा प्राकृत युग में 'भारतीय आर्यभाषा क्षेत्र' में भाषात्मक अन्तराल कम होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता; ये निश्चय ही बहुत अधिक रहे होंगे। प्राकृत युग १ ईस्वी से ५०० ईस्वी तक है । आधुनिक युग की अपेक्षा डेढ-दो हजार साल पहले तो सामाजिक-सम्पर्क निश्चित ही बहत कम होगा फिर भाषात्मक अन्तराल के कम होने का सवाल कहाँ उठता है ? सामाजिक सम्पर्क जितना सघन होगा; भाषा विभेद उतना ही कम होगा। आधुनिक युग में तो विभिन्न कारणों से सामाजिक सम्प्रेषणीयता के साधनों का प्राकृत युग की अपेक्षा कई-कई गुना अधिक विकास हुआ है। इनके अतिरिक्त नागरिक जीवन, महानगरों का सर्वभाषायी स्वरूप, यायावरी वृत्ति, शिक्षा, भिन्न-भाषायी क्षेत्रों में वैवाहिक, व्यापारिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष में एक केन्द्रीय शासन आदि विविध तत्त्वों के द्रत विकास एवं प्रसार के कारण आज भिन्न-भिन्न भाषाओं के बीच परस्पर जितना आदान-प्रदान हो रहा है उसकी डेढ़ दो हजार साल पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इनके अतिरिक्त आधुनिक भारतीय आर्यभाषा काल में तो अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं की शब्दावली, ध्वनियों एवं व्याकरणिक रूपों ने सभी भाषाओं को प्रभावित किया है। इतना होने पर भी आज भी भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की भाषाओं में पारस्परिक बोधगम्यता नहीं है। आज भारतीय आर्यभाषा क्षेत्र में जितनी भिन्न भाषायें एवं किसी भाषा के जितने भिन्न-भिन्न उपरूपों का प्रयोग होता है। प्राकृत युग में तो उस क्षेत्र में निश्चित रूप से अपेक्षाकृत अधिक संख्या में भिन्न भाषाओं तथा उनके विभिन्न क्षेत्रीय उपरूपों का प्रयोग होता होगा किन्तु हमें आज तो प्राकृत रूप उपलब्ध हैं वे एक ही प्राकृत के क्षेत्रीय रूप है जिनमें बहुत कम अन्तर है। एक भाषा की क्षेत्रीय बोलियों में जितने अन्तर प्रायः होते हैं उससे भी बहुत कम । भाषा की बोलियों के अन्तर तो सभी स्तरों पर हो सकते हैं जबकि इन तथाकथित भिन्न प्राकृतों में तो केवल उच्चारणगत भेद ही उपलब्ध हैं । विभिन्न प्राकृतों को देश-भाषाओं के नाम से अभिहित किया गया है किन्तु तात्विक दृष्टि से ये देश की अलग-अलग भाषायें न होकर एक ही प्राकृत भाषा के देश-भाषाओं से रंजित रूप हैं। एक ही मानक साहित्यिक प्राकृत के विविध क्षेत्रीय रूप हैं जिनमें स्वभावतः विविध क्षेत्रों की उच्चारणगत भिन्नताओं का प्रभाव समाहित है । आधुनिक दृष्टि से समझना चाहें तो ये हिन्दी, मराठी, गुजराती की भाँति भिन्न भाषायें नहीं है अपितु आधुनिक साहित्यिक हिन्दी भाषा के हो 'कलकतिया हिन्दी,' 'बम्बइया हिन्दी,' 'नागपुरी हिन्दी' जैसे रूप हैं।
- मेरी इस प्रतिपत्तिका का आधार केवल भाषा वैज्ञानिक नहीं है। इसकी पुष्टि अन्य स्रोतों से भी सम्भव है। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र' में यह विधान किया है कि नाटक में चाहे शौरसेनी भाषा का प्रयोग किया जावे चाहे अपनी इच्छानुसार किसी भी देशभाषा का, क्योंकि नाटक में नाना देशों में उत्पन्न हुए काव्य का प्रसंग आता है। उन्होंने देश-भाषाओं का वर्णन करते हुए उनकी संख्या सात बतलायी है-(१) मागधी, (२) आवंती, (३) प्राच्या (४) शौरसेनी, (५) अर्धमागधी, (६) बाल्हीका, (७) दाक्षिणात्या ।
इस विवेचन के आधार पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि भरत मुनि सात भाषाओं की बातें कर रहे हैं, किन्तु यदि हम संदर्भ को ध्यान में रखकर विवेचना करें तो पाते हैं कि भरत मुनि यह विधान कर रहे हैं कि नाटककार किसी भी नाटक में इच्छानुसार देश प्रसंग के अनुरूप किसी भी देशभाषा का प्रयोग कर सकता है। कोई भी नाटककार अपने नाटक में पात्रानुकूल भाषा नीति का समर्थक होते हुए भी विविध भाषाओं का प्रयोग नहीं करता, न ही कर
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