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जनविद्या के मनीषी प्रोफेसर आल्सडोर्फ
जोरों से हस्तान्दोलन हुमा । पुष्पगुच्छ भेंट किया गया जिसे उन्होंने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक एक पुष्पपात्र में सजाकर मेज पर रख दिया।
क्षणभर के अन्दर इतनी आत्मीयता का अनुभव होने लगा कि कुछ पूछिये मत । कुशल समाचार के बाद कहने लगे कि वसुदेव हिंडी में आपकी रुचि कहाँ से हो गई। मुनि पुण्यविजयजी की अत्यन्त श्रद्धापूर्वक चर्चा करते हुए उन्हें प्रणाम निवेदन किया।
लुडविग आल्सडोर्फ बड़े भाग्यशाली हैं जो बारह बार (सन् १९७४ तक पन्द्रह बार) भारत की यात्रा कर चुके हैं । १६३० में हाम्बुर्ग विश्वविद्यालय से पी-एच. डी की उपाधि प्राप्त करने के बाद वे पहली बार हिन्दुस्तान आये । लगभग २ वर्ष तक इलाहबाद विश्वविद्यालय में जर्मन भाषा के अध्यापक रहे । यहाँ रहकर उन्होंने संस्कृत के एक पंडित के पास संस्कृत का अध्ययन किया। उनके सान्निध्य में उन्होंने वेद, क्लासिकल संस्कृत साहित्य तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ा। गुरुजी आंग्ल भाषा और शिष्यजी हिन्दी भाषा के ज्ञान से वंचित थे, अतएव शिक्षा का एकमात्र साधन बना संस्कृत । उस समय के कितने ही रोचक संस्मरण आल्सडोर्फ बड़ी तन्मयता के साथ सुनाते हैं। 'जैन्टलमैन' का लक्षण पूछने पर पंडितजी ने एक श्लोक सुनायाः "हैट बूट मुखे चुरुट.." (शेष भाग इन पंक्तियों के लेखक को स्मरण नहीं रहा)। पंडित जी सभी शब्दों का अर्थ संस्कृत में समझाया करते थे, कभी अपवादमार्ग का भी आश्रय लेना पड़ जाता था। 'रबर' शब्द का संस्कृत में पर्यायवाची न था, अतएव 'रबर इत्यभिधीयते' कहकर सन्तोष कर लिया जाता।
अपनी भारत-यात्रा के दौरान आल्सडोर्फ ने दूर-दूर तक भ्रमण किया है। प्राचीन जैन ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियों की खोज में उन्होंने जैसलमेर, अणहिलपुर पाटन (जिसे वे जैनपुरी कहते हैं ) अहमदाबाद, कोल्हापुर, बम्बई आदि अनेक स्थानों का परिभ्रमण किया है । आबू, पालिताना आदि तीर्थस्थानों में पहुँच जैन मन्दिरों के दर्शन किये हैं । ऐसे भी प्रसंग उपस्थित हुए जबकि उन्हें मन्दिर के अन्दर प्रवेश करने से रोका गया। उस समय संस्कृत के श्लोक उनकी सहायता करते । श्रोता सफेद चमड़ी वाले एक विदेशी के मुख से संस्कृत के श्लोक सुनकर स्तब्ध रह जाते। और फिर तो उनका खूब सन्मान किया जाता-कितने ही लोग उन्हें पुस्तकें आदि मेंट करते।
अहमदाबाद पहुंच जैन उपाश्रय में जाकर उन्होंने स्व० मुनि पुण्यविजयजी के दर्शन किये। उन्हें शान्त्याचार्यकृत उत्तराध्ययन की पाइयटीका की आवश्यकता थी। मुनिजी ने पुस्तक तुरत निकालकर उनके हवाले कर दी । आल्सडोर्फ अत्यन्त प्रभावित हुए । बेलूर पहुंचकर जनमठ के पुरोहित से साक्षात्कार किया। जब वे कोई बहुमूल्य ताड़पत्रीय प्रति दिखाने में व्यस्त थे तो गर्मी के कारण उनके शरीर से पसीने की एक बूंद पुस्तक के पृष्ठ पर चू गई ! मूलाचार की स्याही से लिखी हुई एक प्राचीन ताडपत्रीय प्रति आल्सडोर्फ के निजी पुस्तकालय की शोभा बढ़ा रही है । कोल्हापुर में लक्ष्मीसेन भट्टारक द्वारा उपहार में दी गई गोम्मटेश्वर की सुन्दर मूर्ति हाम्बुर्ग युनिवर्सिटी में आल्सडोर्फ के कक्ष में रक्खी हुई बहुत भव्य जान पड़ती है। हिन्दुस्तान से उपहार में मिली हुई और भी कितनी ही कीमती वस्तुएं बड़े करीने से सजाकर रक्खी हुई हैं । लगता है एक छोटा-सा हिन्दुस्तान उठकर चला आया है।
जैन आगम साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान् और आल्सडोर्फ के विद्यागुरु प्रोफेसर वाल्टर शूबिंग का चित्र टंगा हुआ है। उनका आदेश था कि उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके सम्बन्ध में कोई विवरण आदि प्रकाशित न किया जाये। उनके चित्र के निचली ओर उक्त आदेश छपा हुआ है।
आल्सडोर्फ सुप्रसिद्ध हाइनरिश ल्यूडर्स (१८६९-१९४३) के शिष्य रहे हैं । अर्स्ट लायमान (१८५६-१९३१) के सम्पर्क में वे आये तथा योरोप की विद्वन्मण्डली में जैनधर्म का बौद्धधर्म से पृथक् अस्तित्व सिद्ध करने वाले जैनधर्म के सुप्रसिद्ध मनीषी हर्मन याकोबी (१८५०-१६३७) से उन्होंने अभूतपूर्व प्रेरणा प्राप्त की । यह याकोबी की प्रेरणा का ही परिणाम था कि आल्सडोर्फ पुष्पदंतकृत महापुराण जैसा महान् ग्रन्थ हाथ में ले सके जो महत्वपूर्ण भूमिका आदि के साथ १९३६ में प्रकाशित हुआ। आगे चलकर दो वर्ष बाद उन्होंने रोम में होने वाली ओरिएन्टल कांग्रेस में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण निवन्ध पढ़ा जिसमें संघदासगणी कृत वसुदेव हिंडी को गुणाढ्य को बृहत्कथा का रूपान्तर सिद्ध किया गया । भारतीय विद्या के क्षेत्र में आल्सडोर्फ की यह विशिष्ट देन थी।
जहाँ तक भारतीय इतिहास और संस्कृति सम्बन्धी पुस्तकों के संग्रह की बात है, बलिन विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी के बाद हाम्बुर्ग विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी का ही नम्बर आता है। युद्धकालीन बमबारी से नष्ट होने से यह बच गई थी । वेद, पुराण, महाभारत, रामायण, स्मृति, दर्शन, बौद्ध और जैन आदि साहित्य सम्बन्धी पुस्तकों का यहां
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