________________
O
Jain Education International
५८२
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
जैनविद्या के मनीषी प्रोफेसर प्रोफेसर आल्सडोर्फ
* डा० जगदीशचन्द्र जैन
**********
०००
-0.000
00000.
फरवरी का महीना था— कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। तापमान शून्य डिग्री से नीचे पहुँच गया था। लेकिन किसी भी हालत में हाम्बुर्ग तो पहुंचना ही था । इतनी जर्मन नहीं सीख पाया था कि निराबाध यात्रा कर गन्तव्य स्थान पर अकेला पहुँच सकूं । यद्यपि आल्सडोर्फ ने स्वयं हाम्बुर्गं स्टेशन पर पहुंच मुझे युनिवर्सटी में लिवा ले जाने के लिये टेलीफोन किया था, परन्तु मैंने उनका यह प्रस्ताव अस्वीकार कर एक मित्र को साथ लेकर स्वयं उपस्थित होना ही ठीक समझा ।
जर्मनी की रेलगाड़ियाँ अत्यन्त नियमित होती हैं । जहाँ कांटे पर घड़ी की सुई पहुंची कि गार्ड की सीटी सुनाई दी और गाड़ी फक्फ बाबाज करती हुई चल पड़ी हिन्दुस्तान जैसा मौड़-मक्का भी गाड़ियों में नहीं होता। सीटें खाली पड़ी रहती हैं । हम लोग १ मिनिट पहले पहुँचे और टिकट खरीद कर गाड़ी में सवार हो गये ।
कील से हाम्बुर्ग पहुँचने में करीब डेढ़ घण्टा लगा। स्टेशन के दफ्तर में पता किया कि युनिवर्सिटी किस प्रकार पहुँचा जा सकता है। दफ्तर की एक युवती महिला ने नक्शे में दिखाकर हमें मार्ग-दर्शन किया। चलते समय शहर का एक नक्शा भी हमारे हाथ में थमा दिया। कहना न होगा कि यहाँ के लोग किसी अनजाने आदमी की मदद बड़ी तत्परता के साथ करते हैं । यदि कोई बात उन्हें स्वयं ज्ञात न हो तो किसी दूसरे या फिर तीसरे व्यक्ति से पूछकर बताते हैं ।
जमीन के नीचे चलने वाली रेलगाड़ी में बैठकर हम लोग अपने गन्तव्य स्थान की ओर चले । स्टेशन से उतरने के बाद रास्ते में द्वितीय विश्वयुद्ध में काम आने वाले बन्दुकधारी सैनिकों का स्मारक बना हुआ था जिसे देखकर उस संहारकारी भीषण युद्ध की याद ताजा हो आई जो यहाँ की भूमि पर लड़ा गया था।
चारों ओर गगनचुम्बी इमारतें दिखाई दे रही हैं जिनका निर्माण प्रायः विश्वयुद्ध के बाद ही हुआ है । दीर्घकाय 'टावर' दिखाई दे रही है जिसके ऊपर चढ़कर देखने से सारे शहर का दृश्य दिखाई पड़ता है । इसकी पहली मंजिल पर एक रेस्तरां बना हुआ है जो निरन्तर घूमता रहता है । योरोप में जर्मन गणतन्त्र, स्वीडन और पेरिस आदि नगरों में इस प्रकार की टावरें देखी जा सकती हैं ।
For Private & Personal Use Only
रास्ते में फूलों की दूकान पर से हमने एक पुष्पगुच्छ खरीदा और युनिवर्सिटी की ओर चल पड़े । युनिवर्सिटी शहर की घनी बस्ती में ही है- हिन्दुस्तान की युनिवर्सिटियों जैसी शान-शौकत और तड़क-भड़क नहीं जो दूर से ही उन्हें पहचाना जा सके । अन्दर प्रवेश करते समय लगा कि जैसे कोई 'प्राइवेट अपार्टमेण्ट' हो ।
इंडोलोजी विभाग की सेक्रेटरी हमें ऊपर ले गई । एक नवयुवक सज्जन ने (बाद में पता लगा कि वे बौद्धधर्म के सुप्रसिद्ध विद्वान् बैर्नहार्ड थे जिनकी अब मृत्यु हो गई है) हमारा स्वागत करते हुए कहा- हम लोग आपका इन्तजार ही कर रहे थे ।
कुछ ही मिनटों में एक उन्नतकाय, स्वस्थ और चुस्त व्यक्ति ने प्रवेश किया। उनकी मुखमुद्रा और भावभंगी देखकर मैं समझ गया कि यह वही विद्वान् होना चाहिये जिसके सम्बन्ध में हम लोग सुनते आ रहे हैं और जिससे भेंट करने के लिये मैं उपस्थित हुआ हूँ ।
www.jainelibrary.org