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जैन आगमों का व्याख्या साहित्य
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वादिवेताल, शांतिसूरि उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के कर्ता हैं। इनका जन्म राधनपुर (गुजरात) के पास ऊण गाँव में हुआ था। पिता का नाम धनदेव, माता का नाम धनश्री तथा स्वयं का नाम भीम तथा दीक्षा का नाम शान्ति था । शान्तिसूरि का समय पाटन के राजा भीमराज (शासनकाल वि. सं. १०७८ से ११२०) के समकालीन माना जा सकता है। आप भीमराज की सभा में 'वादिचक्रवर्ती' तथा 'कवीन्द्र' के रूप में प्रसिद्ध थे। मालव प्रदेश में विहार करते समय धारा नगरी के प्रसिद्ध राजा भोज (शासन काल वि. सं. १०६७ से ११११) की सभा में ८४ वादियों को पराजित करने पर राजा भोज ने इन्हें 'वादिवेताल' के पद से विभूषित किया था।
आपके गुरु का नाम विजयसिंहसूरि था और बाद में आचार्य पद प्राप्त कर अपने गुरु के पट्टधर शिष्य हुए। आपके ३२ शिष्य थे। उन्हें आप प्रमाणशास्त्र का अभ्यास कराते थे। इसी प्रसंग पर एक विद्वान मुनि चन्द्रसूरि का सुयोग मिला जो बहुत ही कुशाग्रबुद्धि थे। उन्हें भी अपने पास रखकर प्रमाणशास्त्र का विशेष अभ्यास कराया।
___अन्त वेला में गिरनार में आकर आपने संथारा किया और विक्रम सं. १०६६ ज्येष्ठ शुक्ला ६ मंगलवार को कालधर्म को प्राप्त हुए।
अभयदेवसूरि नवांगी वृत्तिकार के रूप में प्रसिद्ध है । आपने स्थानांग आदि नो अंग आगमों एवं औपपातिक उपांग की टीकाएँ लिखी हैं । आपकी कुल रचनाओं का ग्रन्थमान करीब ६०,००० श्लोक प्रमाण हैं।
अमयदेवसूरि का बाल्यकाल का नाम अभयकुमार था और धारा नगरी के सेठ धनदेव के पुत्र थे । आपके दीक्षागुरु का नाम वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि था । अमयदेव का जन्म अनुमानतः वि. सं. १०८८, दीक्षा वि. सं. ११०४ आचार्य पद एवं टीकाओं का प्रारम्भ वि. सं. ११२० और स्वर्गवास वि. सं. ११३५ अथवा ११३६ माना जाता है।
मलयगिरिसूरि कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन थे और उन्हीं के साथ विद्या साधना भी की थी । आप आचार्य थे। प्राचार्य हेमचन्द्र के समकालीन होने से मलयगिरि सूरि का समय वि. सं. ११५०-१२५० के लगभग मानना चाहिए।
आचार्य मलयगिरिरचित निम्नलिखित आगमिक टीकायें आज भी उपलब्ध हैं—मगवती (द्वितीय शतक) राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, नन्दी, व्यवहार, वृहत्कल्प, आवश्यक । कुछ और ग्रन्थों की भी टीकायें लिखी हैं । आपने कुल २६ प्रन्थों का निर्माण किया था जिनमें से पच्चीस टीकायें हैं । कुल ग्रन्थमान दो लाख श्लोक प्रमाण है । टीकाओं की विद्वद्वर्ग में बड़ी प्रतिष्ठा है।
मलधारी हेमचन्द्रसूरि का गृहस्थाश्रम का नाम प्रद्युम्न था। आप राजमंत्री थे और मलधारी अभयदेवसूरि के शिष्य थे। वि. सं. ११६८ में आचार्य पद प्राप्त किया और सम्भवतः वि. सं. ११८० में कालधर्म को प्राप्त हुए। आपने आवश्यक, अनुयोगद्वार, नन्दीसूत्र की टीकाओं के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों की भी रचना की, जिनका ग्रन्थमान करीब अस्सी हजार श्लोक प्रमाण है।
उक्त प्रमुख टीकाकारों के अतिरिक्त नेमिचन्द्रसूरि ने उत्तराध्ययनवृत्ति, श्रीचन्द्रसूरि ने आवश्यक, नन्दी, निरयावलिका आदि अन्तिम पाँच उपांगों पर टीकायें लिखी हैं । आगमों पर संस्कृत टीकायें लिखने का क्रम विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी तक चलता रहा और अनेक आचार्यों ने आगमों या उनके किसी अंश पर विद्वत्तापूर्ण टीका ग्रन्थ लिखे हैं।
लोकभाषा टीकाकार-आगमों की संस्कृत टीकाओं की बहुलता होने पर भी समयानुसार भाषा प्रवाह में परिवर्तन आने और लोक-भाषाओं का प्रचार बढ़ने के कारण तथा संस्कृत टीकाओं के सर्वगम्य न होने से उत्तरवर्ती काल में आचार्यों ने जनहित को दृष्टि में रखते हुए लोक-भाषाओं में सरल सुबोध टीकायें लिखी हैं । इन व्याख्याओं का उद्देश्य आगमों के मूलभावों को समझाने का है। परिणामतः तत्कालीन अपभ्रंश (प्राचीन गुजराती) में बालावबोधों की रचना हुई । इस प्रकार की रचनाओं से राजस्थानी एवं गुजराती बोलियों के जानने वाले आगम-प्रेमियों को काफी लाभ मिला तथा आज तो साधारण-जन भी उन व्याख्याओं को पढ़कर अपनी आगम निधि का रसास्वादन कर सकता है।
बालावबोधों की रचना करने वालों में मुनिश्री धर्मसिंहजी का नाम प्रमुख है। आपने भगवती, जीवाभिगम,
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