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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
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है कि कई अर्थ संगति में ठीक नहीं बैठे तो भी दो लाख शब्दों को बाद देकर ८ लाख अर्थ तो इसमें व्याकरणसिद्ध हैं ही। इसीलिए इसका नाम "अष्टलक्षी" रखा है। यह ग्रन्थ देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, से प्रकाशित 'अनेकार्थ रन मंजूषा' में प्रकाशित हो चुका है।
संस्कृत का तीसरा अपूर्व ग्रन्थ है-'सप्त-सन्धान' महाकाव्य । यह १८वीं शताब्दी के महान् विद्वान् उपाध्याय मेघविजय रचित है । इसमें ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ और महावीर इन पांच तीर्थंकरों और लोकप्रसिद्ध महापुरुष द्वय-राम और कृष्ण इन सातों महापुरुषों की जीवनी एक साथ में चलती है । यह रचना विलक्षण तो है ही। कठिन भी इतनी है कि बिना टीका के सातों महापुरुषों से सम्बन्धित प्रत्येक श्लोक की संगति बैठाना विद्वानों के लिए भी सम्भव नहीं होता । यह महाकाव्य टीका के साथ पत्राकार रूप में प्रकाशित हो चुका है। वैसे द्विसंधान, पंचसंधान आदि तो कई काव्य मिलते हैं, पर 'सप्तसंधान' ग्रन्थ विश्वभर में यह एक ही है । ग्रन्थकार ने ऐसा उल्लेख किया है, कि ऐसा काव्य पहले आचार्य हेमचन्द्र ने बनाया था, पर आज वह प्राप्त नहीं है।
दक्षिण के दिगम्बर जैन विद्वान् हंसदेव रचित 'मृगपक्षी शास्त्र' भी अपने ढंग का एक ही ग्रन्थ है। इसमें पशु-पक्षियों की जाति एवं स्वरूप का निरूपण है। इस ग्रन्थ का विशेष निरूपण मेरी प्रेरणा से श्री जयंत ठाकुर ने गुजराती में लिखकर "स्वाध्याय" पत्रिका में प्रकाशित कर दिया है। इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि बड़ौदा के प्राच्य विद्या मंदिर में है । पशु-पक्षियों सम्बन्धी ऐसी जानकारी अन्य किसी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिलती।
कन्नड साहित्य का एक विलक्षण ग्रन्थ है "सिरि भवलय" | यह अंकों में लिखा गया है। कहा जाता है कि इसमें अनेक ग्रन्थ संकलित हैं एवं अनेक भाषाएँ प्रयुक्त हैं। इसका एक भाग जैन मित्र मंडल, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है । राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद जी के समय तो इस ग्रन्थ के महत्व के सम्बन्ध में काफी चर्चा हुई है पर उसके बाद उसका पूरा रहस्य सामने नहीं आ सका।
हिन्दी भाषा में एक बहुत ही उल्लेखनीय रचना है "अर्द्ध कथानक"। १७वीं शताब्दी के जैन कवि बनारसीदास जी ने अपने जीवन की आत्मकथा बहुत ही रोचक रूप में इस ग्रन्थ में दी है। इस आत्मकथा की प्रशंसा श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने मुक्त कंठ से की है।
इस तरह के और भी अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ जैन साहित्य-सागर में प्राप्त हैं जिससे भारतीय साहित्य अवश्य ही गौरवान्वित हुआ है । वास्तव में इस विषय पर तो एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लिखा जाना अपेक्षित है । यहाँ तो केवल संक्षिप्त झांकी ही दी जा सकी है।
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--पुष्कर वाणी----------------------------------------
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कहा जाता है कि बत्तख सदा पानी में रहता है किन्तु कभी पानी में डूबता नहीं। पानी का प्रवाह चाहे जितना तेज हो जाये वह स्वभावतः सदा I उसके ऊपर-ऊपर ही तैरता रहता है।
जीवन में ऐसी निलिप्तता सीखनी है। धन-वैभव, सत्ता और विषयों I के जल में रहने वाले मानव ! कभी उनमें डूबो मत ! धन, सत्ता और सुखों के । साधन चाहें जितने बढ़ें, तुम बत्तख की भाँति सदा ऊपर तैरते ही रहो, डूबो । ३ मत !
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