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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
उत्तर भारत की प्रान्तीय भाषाओं की तरह दक्षिण भारत की प्रमुख भाषा कन्नड़ और तमिल इन दोनों में भी जैन साहित्य बहुत अधिक मिलता है । आचार्य भद्रबाहु दक्षिण भारत में अपने संघ को लेकर पधारे क्योंकि उत्तर भारत में उन दिनों बहुत बड़ा दुष्काल पड़ा था। उनके दक्षिण भारत में पधारने से उनके ज्ञान और त्याग तप से प्रभावित होकर दक्षिण भारत के अनेक लोगों ने जैनधर्म को स्वीकार कर लिया और उनकी संख्या क्रमशः बढ़ती ही गई। आस-पास के क्षेत्रों में जैनधर्म का खूब प्रचार हुआ। जैन मुनि चातुर्मास के अतिरिक्त एक जगह रहते नहीं हैं, इसलिए उन्होंने घूम-फिर कर जैनधर्म का सन्देश जन-जन में फैलाया । लोक-सम्पर्क के लिए वहाँ जो कन्नड़ और तमिल भाषाएँ अलग-अलग प्रदेशों में बोली जाती थीं उनमें अत्यधिक साहित्य निर्माण किया । अत: उन दोनों भाषाओं का प्राचीन और महत्त्वपूर्ण साहित्य जैनों का ही प्राप्त है। इस तरह उत्तर और दक्षिण भारत की प्रधान भाषाओं में जैन साहित्य का प्रचुर परिमाण में पाया जाना बहुत ही उल्लेखनीय और महत्त्वपूर्ण है। भारतीय साहित्य को जैनों की यह विशिष्ट देन ही समझनी चाहिये। विषय वैविध्य
विषय वैविध्य की दृष्टि से भी जैन साहित्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि जीवनोपयोगी प्रायः प्रत्येक विषय के जैन ग्रन्थ रचे गये हैं इसलिए जैन साहित्य केवल जैनों के लिए ही उपयोगी नहीं उसकी सार्वजनिक उपयोगिता है । व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, काव्य-शास्त्र, वैद्यक, ज्योतिष, मन्त्र-तन्त्र, गणित, रत्न-परीक्षा आदि अनेक विषयों के जैन ग्रन्थ प्राकृत, संस्कृत, कन्नड, तमिल और राजस्थानी, हिन्दी, गुजराती में प्राप्त हैं। इनमें से कई ग्रन्थ तो इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि जैनेतरों ने भी उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और उन्हें अपनाया है। जैन विद्वानों ने साहित्यिक क्षेत्र में बहुत उदारता रखी। किसी भी विषय का कोई अच्छा ग्रन्थ कहीं भी उन्हें प्राप्त हो गया तो जनविद्वानों ने उसकी प्रति मिल सकी तो ले ली या खरीद करवा ली, नहीं तो नकल करवाकर अपने भण्डार में रख ली। जैनेतर ग्रन्थों का पठन-पाठन भी वे बराबर करते ही थे । अतः आवश्यकता अनुभव करके उन्होंने बहुत से जैनेतर ग्रन्थों पर महत्त्वपूर्ण टीकाएँ लिखी हैं । इससे उन ग्रन्थों का अर्थ या भाव समझना सबके लिए सुलभ हो गया और उन ग्रन्थों के प्रचार में अभिवृद्धि हुई । जनेतर ग्रन्थों पर जैन टीकाओं सम्बन्धी मेरा खोजपूर्ण लेख "मारतीय विद्या" के दो अंकों में प्रकाशित हो चुका है। जैन ग्रन्थों में बौद्ध और वैदिक अनेक ग्रन्थों के उद्धरण पाये जाते हैं। उनमें से कई जनेतर ग्रन्थ तो अब उपलब्ध भी नहीं होते । बहुत से जैनेतर ग्रन्थों को अब तक बचाये रखने का श्रेय जैनों को प्राप्त है। ऐतिहासिक दृष्टि से जैन साहित्य का महत्त्व
ऐतिहासिक दृष्टि से जैन साहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। भारतीय इतिहास, संस्कृति और लोक-जीवन सम्बन्धी बहुत ही महत्वपूर्ण सामग्री जैन ग्रन्थों व प्रशस्तियों एवं लेखों आदि में पायी जाती है । जैन आगम साहित्य में दो-अढाई हजार वर्ष पहले का जो सांस्कृतिक विवरण मिलता है, उसके सम्बन्ध में डा० जगदीशचन्द्र जैन लिखित “जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज" नामक शोध-प्रबन्ध चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी से प्रकाशित हुआ है, उससे बहुत सी महत्वपूर्ण बातों का पता चलता है। जैन प्रबन्ध संग्रह, पट्टावलियां, तीर्थमालाएं और ऐतिहासिक गीत, काव्य आदि में अनेक छोटे-बड़े ग्राम-नगरों, वहाँ के शासकों, प्रधान व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है, जिनसे छोटे-छोटे गांवों की प्राचीनता, उनके पुराने नाम और वहाँ की स्थिति का परिचय मिलता है। बहुत से शासकों के नाम जिनका इतिहास में कहीं भी नाम नहीं मिलते, उनका जैन ग्रन्थों में उल्लेख मिल जाता है। बहुत से राजाओं आदि के काल-निर्णय में भी जैन सामग्री काफी सूचनाएं देती है व सहायक होती है । इस दृष्टि से गुर्वावली तो बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। जैन साहित्य की गुणवत्ता
अब यहां कुछ ऐसे जैन ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय कराया जायगा, जो अपने ढंग के एक ही हैं। इनमें कई ग्रन्थ तो ऐसे भी हैं जो भारतीय साहित्य में ही नहीं, विश्व साहित्य में भी अजोड़ हैं। प्राचीन भारत में ज्ञान-विज्ञान का कितना अधिक विकास हुआ था और आगे चलकर इसमें कितना ह्रास हो गया-इसकी कुछ झांकी आगे दिये जाने वाले विवरणों से पाठकों को मिल जायगी। ऐसे कई ग्रन्थों का तो प्रकाशन भी हो चुका है, पर उनकी जानकारी विरले ही व्यक्तियों को होगी। वास्तव में जैन साहित्य अब तक बहुत ही उपेक्षित रहा है और बहुत से विद्वानों ने तो यह गलत धारणा बना ली है कि जैन साहित्य, जैनधर्म आदि के सम्बन्ध में ही होगा, सर्वजनोपयोगी साहित्य उसमें नहीं-वत् है । पर वास्तव में सर्वजनोपयोगी जैन साहित्य बहुत बड़े परिमाण में प्राप्त है, जिससे लाभ उठाने पर भारतीय समाज का
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