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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन
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एक दिन, प्रातः अरुणोदय वेला में ही सहसा मैं मति एवं यथागति अध्ययन के सम्बन्ध में मैंने कुछ रचनाउनके पास जा निकला तो देखा, वे एकान्त-शांत वाता- त्मक सुझाव भी प्रस्तुत किए, जो उनको अत्यन्त आकर्षक वरण में योगासनों का अभ्यास कर रहे हैं। मैंने कहा- तथा रुचिकर प्रतीत हुए और अन्त में श्री पुष्कर मुनिजी अच्छा, योगासनों का अभ्यास चल रहा है ? हँसते- प्रसन्न स्वर में बोले-"सुरेश मुनिजी, इन दोनों के भावी मुस्कराते स्वर में वे बोले; हाँ, जीवन में यह भी चलता अध्ययन के सम्बन्ध में आपने जो मौलिक मार्ग-दर्शन किया, है ! शरीर की स्वस्थता तथा मन-मस्तिष्क की संतुलित इससे मैं भाव-विभोर हो गया हूँ। ऐसा स्पष्ट और सहज अवस्था के लिए योगासनों का अभ्यास भी जीवन में विचारों का आदान-प्रदान करने का अवसर हमें कहाँ अनिवार्य एवं अपरिहार्य है-ऐसा मेरा स्वयं का अनुभव मिलता है ? आप का यह स्नेह-मिलन, सेवा-सद्भाव और है। उनकी दिनचर्या तथा अध्यात्म-चर्चा से यह तथ्य मार्ग-दर्शन हमें इस स्नेह-यात्रा की याद दिलाता रहेगा।" भली-भाँति उजागर होता था कि उन्हें अध्यात्म-योग की अपनी तरंगित मनःस्थिति में मैंने कहा- "भई, भी लटक है।
अपनी तो प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि जब भी किसी से उनके परम शिष्य श्री देवेन्द्र मुनिजी और गणेश मिलते हैं तो दिल-खोलकर मिलते हैं। मन में कोई गाँठ मुनिजी उन दिनों अध्ययन-रत थे। अपने शिष्य-युगल के रखकर बन्द तबियत से मिलने में कुछ मजा भी तो नहीं शैक्षणिक विकास तथा उज्ज्वल-समूज्ज्वल भविष्य के प्रति आता? उनकी चेतना एवं शक्ति पूर्णतः जाग्रत थी। आगरा से जब मिले, जिससे मिले, दिल खोलकर मिले ! उनका प्रस्थान हुआ तो प्रथम पड़ाव पर भी मुझे उनकी इससे बढ़कर और कोई खूबी इन्सां में नहीं। सेवा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रतिक्रमण के बाद, मिलता नहीं मिल बैठनेवालों को कुछ मजा! रात के एकांत-शांत वातावरण में मिल-बैठने का प्रसंग जब तक कि तबीअत से तबीअत नहीं मिलती। आया तो अपने शिष्य-युगल की उपस्थिति में श्री पुष्कर मेरे परम स्नेही साथी श्री देवेन्द्र मुनि जी ने जब मुझे मुनिजी बोले-"सुरेश मुनि जी, इनके अध्ययन एवं यह सूचना दी कि, इधर हम अपने गुरुदेव श्री पुष्कर विकास की भावी रूपरेखा के सम्बन्ध में भी आप अपने मुनिजी के चरणों में एक विशाल एवं विशिष्ट अभिनन्दनविचार दीजिए, कुछ मार्ग-दर्शन कीजिए। आप तो इस ग्रन्थ समर्पित करने जा रहे हैं तो अतीत की वे सब मंजिल को तय कर चुके हैं। आपके दूरगामी अनुभव से स्मृतियाँ एकबारगी स्मृति-पटल पर उभर आयीं! सचमुच, लाभान्वित होकर ये सुचारु रूप से गति-प्रगति कर सकें, इस संसूचना ने अतीत को बींधकर वर्षों पुरानी स्मृति की अपनी मंजिल पर आगे बढ़ सकें--यह मेरी हार्दिक परतों को उधेड़ दिया और अट्ठाईस वर्ष पूर्व की वे इच्छा है।"
स्नेह-स्मृतियाँ चित्रपट की तरह मेरे मानस-नेत्रों के आगे विनम्र स्वर में मैंने निवेदन किया-"पुष्कर मुनिजी, घूम गयीं। और, तरंगित मन गुनगुनाने लगाआप बड़े भाग्यशाली हैं, जो ऐसे अध्ययनशील एवं सुयोग्य मुद्दतें गुजरों, कभी याद भी आयी न तेरी। शिष्य आपको मिले हैं। आज के सामाजिक परिवेश में और हम मूल गये हों, ऐसा भी नहीं ॥ अध्ययन के अभाव में गति कहाँ ? अपनी मति एवं गति से ऐसे गरिमा-मंडित संत का अभिनन्दन करना संत के ये दोनों ठीक चल रहे हैं, निरन्तर आगे बढ़ रहे हैं । मैं प्रति समाज की ओर से सामूहिक श्रद्धा तथा हार्दिक निष्ठा सेवा में प्रस्तुत हूँ। जो कुछ भी मुझे आता है, उसे का ही प्रतीक है और उनकी समाज-सेवा, परोपकारशीलता बतलाने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है।"
एवं आचारनिष्ठता का विनम्र समादर है-ऐसा मैं मानताऔर इसके पश्चात् काफी देर तक-संभवतः आधी समझता हूँ। रात तक अनौपचारिक विचार-विमर्श चलता रहा। हम इस शुभ अवसर पर, संघ के इस प्रतिष्ठित संत का खुलकर अन्तरतम की बातें करते रहे। जीवन के वे उजले शतायु होने की मंगल कामना के साथ शत-शत अभिक्षण कभी धुंधले नहीं पड़ सकते। प्रस्तुत सन्दर्भ में यथा- नन्दन !!!
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