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मन : शक्ति, स्वरूप और साधना-एक विश्लेषण
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६६ मणो साहसिओ भीमो दुट्ठसो परिधावई ।
-उत्तराध्ययन २३१५८ ७० रम्भ समारम्भे आरम्भे य तहेव य । मणं पवत्तमाणं तु नियत्तिज्ज जयं जई ।।
-उत्तराध्ययन २४१११ ७१ गीता, ६६३४ ७२ गीता, ६-३५ ७३ मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।-गीता ६-१४ ७४ धम्मपद, चित्तवर्ग, ३३-३५ ७५ योगशास्त्र (हेमचन्द्र) ३६-३६ ७६ प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ।-गीता ३३३ ७७ सर्वास्या एवं राषि ! भूतजातर्जगत्त्रये ।
देवादेवरपि देहोऽयं द्वयात्मैव स्वभावतः ।
अज्ञमस्त्वथ तज्ज्ञ वा यावत्स्वान्तं शरीरकर्म ॥-योगवसिष्ठ १०५।१०६ ७८ तथा तथा प्रवर्तेत यथा न क्षुभ्यते मनः । संक्षुब्धे चित्तरत्ने तु सिद्धिनैर्व कदाचनः ।।
-प्रज्ञोपाय विनिश्चय, ५।४० (उद्धृत बोधिचर्यावतार, भूमिका, पृ० २० ७६ बोधिचर्यावतार, भूमिका, पृ० २० ८० विशेष जानकारी के लिए देखिए-गुणस्थानारोहण । ८१ योगशास्त्र १२१३३-३६
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किसी भी वस्तु का बाहरी रंग-रूप देखकर मत भरमाओ, उसका गुण और १ तत्त्व दोनों ही विचारणीय हैं । कस्तूरी काली होती है पर कितनी मूल्यवान है।
भैस भी काली होती है पर कितना उजला-चिकना दूध देती है ।
सज्जन बाहर से भले ही मलिन वस्त्र पहने दीखें, सीधे-सादे दुबले-पतले । हों, किन्तु उनकी उज्ज्वल आत्मा कितनी महान है ! तुम बाहर को नहीं, भीतर को देखो।
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