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इन्द्रियों की संख्या
जैन दृष्टि में इन्द्रियाँ पाँच मानी जाती हैं :
(१) श्रोत्र ( २) चक्षु (३) घ्राण (४) रसना और (५) स्पर्शन ।
सांख्य विचारणा में इन्द्रियों की संख्या ११ मानी गई है । ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ और १ मन । जैन विचारणा में ५ ज्ञानेन्द्रियाँ तो उसी रूप में मानी गई हैं किन्तु मन नोइन्द्रिय (Quasi sense organ ) कहा गया है । पाँच कर्मेन्द्रियों की तुलना उनकी १० बल की धारणा में वाक्वल, शरीरबल एवं श्वासोच्छ्वास बल से की जा सकती है । बौद्ध ग्रन्थ विशुद्धिमग्गो में इन्द्रियों की संख्या २२ मानी गई है। बौद्ध विचारणा उक्त पाँच इन्द्रियों के अतिरिक्त पुरुषत्व, स्त्रीत्व, सुख-दुःख तथा शुभ एवं अशुभ मनोभावों को भी इन्द्रियों के अन्तर्गत मान लेती है । 12°
जैन दर्शन में उक्त पाँचों इन्द्रियाँ दो-दो प्रकार की होती हैं :
(१) द्रव्येन्द्रिय (२) मावेन्द्रिय |
इन्द्रियों की आगिक संरचना (Structural aspect) द्रस्वेन्द्रिय कहलाती है और आन्तरिक क्रियाशक्ति (Functional aspect ) नावेन्द्रिय कहलाती है। इनमें से प्रत्येक के पुनः उप विभाग किये गये हैं जिन्हें संक्षेप में निम्न सारिणी से समझा जा सकता है:
द्रव्येन्द्रिय
उपकरण
(इन्द्रिय रक्षक अंग )
1
I
अन्तरंग बहिरंग
मन शक्ति, स्वरूप और साधना एक विश्लेषण
निवृत्ति
(इन्द्रिय अंग )
I
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T
अन्तरंग
इन्द्रिय 1
लब्धि (शक्ति)
४४१
मावेन्द्रिय
1
उपयोग
बहिरंग
शब्द तीन प्रकार का माना गया
इन्द्रियों के व्यापार या विषय- (१) श्रोत्र न्द्रिय का विषय शब्द है । है। जीव का शब्द, अजीव का शब्द और मिश्र शब्द । कुछ विचारक ७ प्रकार के शब्द मानते हैं । (२) चक्षु इन्द्रिय का विषय रंग-रूप है। रंग काला, नीला, पीला, लाल और श्वेत, पाँच प्रकार का है। शेष रंग इन्हीं के सम्मिश्रण के परिणाम हैं। (३) घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध है । गन्ध दो प्रकार की होती है - (१) सुगन्ध और (२) दुर्गन्ध । (४) रसना का विषय रसास्वादन है। रस ५ प्रकार के होते हैं-कटु, अम्ल, लवण, तिक्त और काषाय । (५) स्पर्शन इन्द्रिय का विषय स्पर्शानुभूति है । स्पर्श आठ प्रकार के होते हैं— उष्ण, शीत, रूक्ष, चिकना, हल्का, भारी, कर्कश और कोमल । इस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय के ३, चक्षुरिन्द्रिय के ५ घ्राणेन्द्रिय के २, रसनेन्द्रिय के ५ और स्पर्शेन्द्रिय के कुल मिलाकर पाँचों इन्द्रियों के २३ विषय होते हैं ।
जैन विचारणा में सामान्य रूप से यह माना गया है कि पाँचों इन्द्रियों के द्वारा जीव उपरोक्त विषयों का सेवन करता है। गीता में कहा गया है यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु, त्वचा, रसना, घ्राण और मन के आश्रय से ही विषयों का सेवन करता है ।
ये विषय भोग आत्मा को बाह्यमुखी बना देते हैं । प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषयों की ओर आकर्षित होती है और इस प्रकार आत्मा का आन्तरिक समत्व भंग हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि 'साधक शब्द, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श इन पाँचों प्रकार के कामगुणों (इन्द्रिय विषयों) को सदा के लिये छोड़ दे२२ क्योंकि ये इन्द्रियों के विषय आत्मा में विकार उत्पन्न करते हैं ।
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इन्द्रियाँ अपने विषयों से किस प्रकार सम्बन्ध स्थापित करती हैं और आत्मा को उन विषयों से कैसे प्रभावित करती है इसकी विस्तृत व्याख्या प्रज्ञापनासूत्र और अन्य जैन ग्रन्थों में मिलती है । विस्तार भय से हम इस विवेचना में जाना नहीं चाहते हैं। हमारे लिए इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि जिस प्रकार द्रव्यमन भावमन को प्रभावित करता है और भावमन से आत्मा प्रभावित होता है। उसी प्रकार द्रव्य इन्द्रिय (Structural aspect of sense organ ) का विषय से सम्पर्क होता है और वह भाव - इन्द्रिय (Functional and Psychic aspect of sense organ ) को
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