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जैन और बौद्ध साधना-पद्धति
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पांच प्रकार के रूप ध्यान का अभ्यास करता है । इस प्रकार लोकोत्तर चित्त के चालीस भेद हो जाते हैं । लोकोत्तर ध्यान ही परिशुद्ध ध्यान कहा जाता है।
विपस्सना भावना बौद्ध साधना में समाधि भावना (चित्त की एकाग्रता) और विपस्सना भावना (अन्तर्ज्ञान) का विशेष महत्त्व है । विपश्यना का तात्पर्य है वह विशिष्ट ज्ञान और दर्शन जिनके द्वारा धर्मों की अनित्यता, दुःखता और अनात्मता प्रगट होती है । शमथयान और विपश्यनायान का सम्बन्ध दो प्रकार के व्यक्तियों से है-तण्हाचरित और दिद्विचरित । तण्हाचरित वाले साधक शमथपूर्वक विपश्यना के माध्यम से अर्हत् की प्राप्ति करते हैं और दिटिचरित वाले साधक विपश्यना पूर्वक शमथ के माध्यम से अर्हत् की प्राप्ति करते हैं। यहां श्रद्धा और प्रज्ञा तत्व का महत्व है। श्रद्धा तत्व के माध्यम से समाधि की प्राप्ति होती है। ऐसा साधक कर्मस्थान का अभ्यास करते हुए, ऋद्धियों की प्राप्तिपूर्वक विपश्यना मार्ग की उपलब्धि करता है और प्रज्ञा प्राप्ति कर अर्हत बनता है। तथा प्रज्ञाप्रधान साधक विपश्यना मार्ग का अभ्यास करता है और अन्त में प्रज्ञा प्राप्त कर अर्हदावस्था प्राप्त करता है। इससे स्पष्ट है कि विपश्यना का सीधा सम्बन्ध अर्हत्प्राप्ति एवं निर्वाण प्राप्ति से है। समाधि का उससे सीधा सम्बन्ध नहीं । शमथ का मार्ग लौकिक समाधि का मार्ग है और विपश्यना को लोकोत्तर समाधि कहते हैं ।
विपश्यना परम विशुद्धि की प्रतीकात्मक अवस्था है । यह विशुद्धि सात प्रकार की है-शील, चित्त, दृष्टि, कांक्षावितरण, मार्गामार्गज्ञान, प्रतिपदाज्ञान और ज्ञानदर्शन। इन विशुद्धियों के पालने से काय, मन व विचारों की पवित्रता सहजतापूर्वक उपलब्ध हो जाती है । विपश्यना का परिपाक पूर्णज्ञान और निर्वाण की प्राप्ति माना गया है। शरीर के रहने पर सोपधिशेष निर्वाण और शरीर के नष्ट हो जाने पर निरुपधिशेष निर्वाण कहा जाता है। अभिज्ञाओं की प्राप्ति भी विपश्यना से होती है।
महायानी साधना उपर्युक्त स्थविरवादी साधना के कुछ तत्त्व विकसित होकर महायानी साधना के रूप में सामने आये । ई०पू० लगभग तृतीय शताब्दी तक बौद्ध साधना का यह रूप निश्चित हो पाया । महायानी साधना के प्रमुखतः तीन भेद हैंबोधिचित्त के द्वारा पारमिताओं की प्राप्ति, दशभूमियाँ तथा त्रिकायवाद ।
बोधिसत्त्व का प्रारम्भ बोधिचित्त से होता है। "मैं बुद्धत्व प्राप्त करूंगा और संसार का परित्राण करूंगा।" इस प्रकार का प्रणिधान बोधिचित्त है । यह प्रणिधान उसे अचित्तता (शून्यतामयी दृष्टि) अथवा पदार्थचित्तता (महाकरुणा और महाप्रज्ञा) की ओर ले जाता है । उपायकौशल, पुण्यसंमार और ज्ञान संसार से इस दृष्टि में अधिक विशुद्धि आती है । पुद्गलनैरात्म्य और धर्मनैरात्म्य की भावना पारमिताओं की साधना से प्राप्त होती है।
दस पारमिताओं की साधना के साथ दश भूमियों की व्यवस्था की गई है। ये दस भूमियां हैं-प्रमुदिता, विमला, प्रभाकरी, अचिस्मती, सुदुर्जया, अभिमुखी, दुरंगमा, अचला, साधुमती और धर्ममेधा । इन भूमियों में क्रमशः दस प्रकार की पारमितायें पूर्ण होती है-दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, उपायकौशल, प्रणिधान, बल और ज्ञान ।
प्रमुदिता भूमि में साधक को परार्थ वृत्ति से प्रसन्नता होती है और वह दस प्रकार के प्रणिधान, निष्ठायें और निपुणतायें अजित करता है। विमला भूमि में साधक ऋजुता, मदुला, कर्मण्यता, दम, शम, कल्याण, अनासक्ति, अनपेक्षता उदारता और आशय नामक दस चित्ताशयों को पाता है। प्रभाकरी भूमि विविध ऋद्धियों और अभिज्ञाओं की उत्पादिका है। इसमें चार ब्रह्मविहारों का क्षेत्र विस्तृत होता है । अचिस्मती में सेंतीस बोधिपाक्षिक धर्मों का परिपालन किया जाता है । सुदुर्जया भूमि चित्त की विशुद्ध स्थिति का नाम है। इसमें आर्य सत्यों का बोध एवं महाकरुणा तथा शून्यतामयी दृष्टि का विकास होता है । यहाँ सामन्त और मौल दोनों प्रकार के ध्यान पूर्ण हो जाते हैं।
अभिमूखी भूमि में साधक दस प्रकार की समतायें प्राप्त करता है-अनिमित्त, अलक्षण, अनुत्पाद, अजात, विविक्त,, आदिविशुद्वि, निस्प्रपंच, अनाव्यूहानिव्यूह, प्रतिबिम्बनिर्माण और भवाभावद्रव इन समताओं को करने से प्रतीत्यसमुत्पाद स्पष्ट हो जाता है और शून्यता विमोक्ष सुख नामक समाधि प्राप्त हो जाती है। दूरंगमा भूमि में साधक एक विशेष स्थिति तक पहुँच जाता है जहां उसके समस्त कर्म अपरिचित अर्थ सिद्धि के लिए उपायकौशल का उपभोग करते हैं । अचला भूमि में संसारी प्राणियों के दुःखों की परिसमाप्ति करने का पुनः प्रणिधान किया जाता है । इस भूमि
MAR TIRITERAHIMIRE RAT की यह विशेषता है कि साधक अपनी भूमि से च्युत नहीं होता तथा दशबल और चार वैशारद्यों की प्राप्ति करता है।
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