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जैन और बौद्ध साधना पद्धति
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जैन और बौद्ध साधना-पद्धति
* डा० भागचन्द्र 'भास्कर', एम० ए०, पी-एच० डी०
[पालि एवं प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय]
साधना अध्यात्म-क्षेत्र की चरम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त करने का एक महामन्त्र है। व्यक्ति उसका केन्द्रबिन्दु है, समाज उसका बाह्य आधार है और संसार उसका यथार्थवादी दर्पण है। साधक आत्मनिष्ठ होकर अपनी धर्मसाधना करता है और रहस्य की हर अनुद्घाटित परतों को उद्घाटित करने का प्रयत्न करता है । शैलेशी अवस्था तक पहुंचते-पहुँचते उसे विविध आयाम स्थापित करने पड़ते हैं जिन्हें उसकी वृत्ति की कसौटी कहा जा सकता है ।
जैन और बौद्ध साधना पद्धति श्रामणिक साधना पद्धति के विशिष्ट अंग हैं। दोनों यद्यपि एक पथ के पथिक हैं, पर उत्तरकाल में उनकी पद्धतियों में कुछ अधिक अन्तर आ गया। बौद्ध-साधना में योगमार्ग का जितना अधिक विकास हुआ है उतना जैन-साधना में नहीं। वैदिक-साधना पद्धति से बौद्ध-साधना पद्धति अधिक प्रभावित दिखाई देती है ।
साधनों की विशुद्धि पर दोनों साधनाओं ने प्रारम्भ में प्रायः समान बल दिया है, पर मध्यकाल में बौद्धसाधना चारित्रिक शिथिलता की ओर बढ़ती दिखाई देती है। जैन-साधना इस प्रकार के प्रभाव से दूर रही। उसकी साधना के समूचे इतिहास को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि चारित्रिक दृढ़ता उसकी प्रबल भूमिका रही है। उसके अविच्छिन्न अस्तित्व का यही मूल कारण है।
दोनों साधना पद्धतियां अपने आप में गंभीर और विस्तृत हैं। उनका समायोजन एक निबन्ध में करना सरल नहीं। फिर भी हम यहाँ समासतः यह प्रयत्न करेंगे कि दोनों साधना पद्धतियों को स्पष्ट समझा जा सके और उनमें समानताओं तथा असमानताओं को दिग्दर्शित किया जा सके ।
समस्त कर्मक्लेशों से मुक्ति प्राप्त करना ही साधना का मूल उद्देश्य है। अतः साधना और धर्म समानार्थक बन जाते हैं । योग और समाधि भी लगभग इसी अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । तप, ध्यान, भावना और प्रधान भी इसी क्षेत्र के पारिभाषिक शब्द हैं, जिनका उपयोग दोनों साधनाओं ने किया है।
जैन-साधना का भव्य प्रासाद सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन आधार-स्तम्भों पर खड़ा हुआ है । बौद्ध साधना भी इसी प्रकार प्रज्ञा, शील और समाधि इन तीन अंगों को प्रधानतः संजोये हुए है। विवेचन की यही दिशा अधिक उपयुक्त होगी। सम्यग्दर्शन और सम्माविट्ठि
जैन-बौद्धधर्म प्रत्यात्मसंवेदी रहे हैं। स्वानुभव और तर्क की प्रतिष्ठा में उन्होंने अथक परिश्रम किया है। जैनधर्म में सम्यग्दर्शन का तात्पर्य है-आत्मा के विविध स्वरूपों को पहिचानना । आत्मा के वहाँ तीन रूप माने गये हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । प्रथम स्थिति में साधारणजन आत्मा और शरीर को एक द्रव्य मानकर परपदार्थों में मोहित बना रहता है । उसके भवग्रहण और भवसंचरण का यही मूल कारण है ।' द्वितीय स्थिति में यह मोहबुद्धि दूर हो जाती है। इसी अवस्था में साधक अन्तरात्मा से परमात्मा की ओर बढ़ने लगता है। यहां तक पहुँचतेपहुंचते वह आत्मा के मूल स्वरूप को पहिचानने लगता है और मैत्री, प्रमोद, कारुण्य व माध्यस्थ्य भावनाओं को भाते
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