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जन-साधना का रहस्य
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पर ही समग्र साधना की इमारत खड़ी है । कहने का तात्पर्य यह है कि केवल नैतिक उपदेशों या कर्मकाण्डों के आधार पर की गई साधना मनुष्य को तपस्वी तो बना सकती है, उसमें सहिष्णुता मी आ सकती है, किन्तु साध्य अस्पष्ट ही रहता है। जैनधर्म के अनुसार साधक के समक्ष साध्य का चित्र स्पष्ट रहता है और उसी के चतुर्दिक उसकी साधना का चंक्रमण होता है।
जैन साधक तप भी करता है। जैन साधक के लिए बारह प्रकार के तपों का विधान है। छः तप बाह्य हैं और छः आभ्यन्तर । बाह्य तपों के द्वारा साधक कभी अनशन करके, कभी भूख से कम खाकर, कभी सीमित पदार्थ ग्रहण करके, कमी किसी रस को तज करके, और कमी शरीर को नियन्त्रित करके वासनाओं पर अंकुश लगाता है, अभिलाषाओं को संकोचता है । आन्तरिक तप के द्वारा वह ज्ञान-ध्यान, पठन-पाठन-चिंतन में निरत रहता है। तप के ये प्रकार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बड़े मूल्यवान् है। इनमें बाहरी तपन नहीं है । लोगों को चमत्कृत करके प्रसिद्धि प्राप्त करने की अभीप्सा नहीं है और व्यर्थता भी नहीं है । शरीर को सताने की अपेक्षा उसे हल्का-फुल्का एवं विकार-विजित बनाने में जो तपस्या सहायक हो, वही करने का इंगित इन तपों में है। ये तप बाहर से दीखते भी नहीं हैं, साधक इन्हें प्रदर्शित भी नहीं करता । सूर्य जैसे अपनी किरणों से संसार को प्रकाश के साथ-साथ जीवन देता है, वैसे ही इन द्वादश तपों से साधक अपने में तेज का अनुभव करता है और इस तेज से वातावरण को आलोक मिलता है। ये तप साधक के शरीर-दीप को प्रज्वलित रखते हैं । तपोमय शरीर का दीपक बुझता नहीं है, उसका उत्सर्ग होता है, जो समूचे वातावरण में एक प्रकाश-किरण छोड़ जाता है।
जैन-साधना में आयु की मर्यादा का कोई प्रावधान नहीं है। जिस मानव-चेतना में ज्ञान-किरण का उदय हो जाता है, वैराग्य की उमि तरंगायमान होने लगती है, वह साधना के पथ पर आरोहण कर जाता है । अनेक उदाहरणों में हम देखते ही हैं कि अल्पवय में ही अनेक पुरुष ज्ञानी एवं संत हो गये हैं । ज्ञान आत्मिक ऊर्जा है, वह पोथी-पुस्तकों की चीज नहीं है । कबीर तो कह ही गये हैं कि पोथी पढ़-पढ़ कर तो संसार मर ही गया, कोई पण्डित नहीं हुआ। एक तरुण भी श्रमण हो सकता है और एक वृद्ध भी माया-जाल में उलझा रह जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में अनाथी मुनि की एक ऐसी ही प्रतीक-कथा है। जैन आगमों में अनेक तरुण तपस्वियों की गाथाएँ अंकित हैं जो माता-पिता को घर में छोड़कर वन की ओर प्रस्थान कर गये। मूल बात यह है कि आश्रम-व्यवस्था निर्माण करके मनुष्य जीवन को चार खंडों में विभाजित करने की कल्पना ज्ञान अथवा साधना के मार्ग में सहायक नहीं होती। वह तो एक सामान्य एवं स्थूल विधान मात्र है जिसके पीछे मानवीय ज्ञान-शक्ति की अवहेलना है। प्रारम्भ के २५ वर्षों तक ब्रह्मचर्याश्रम के पालन का विधान मनुष्य को आगे भोग में ले जाता है। जबकि जैन-साधना के अन्तर्गत ब्रह्मचर्यव्रत का विधान एक बार स्वीकार करने बाद अत्याज्य है और इसी कारण वह मनुष्य को 'योग' की ओर ले जाता है। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने संकेत किया है कि 'जीवन एक अमर जवानी है, उसे उस आयु से नफरत है जो इसकी गति में बाधक हो, जो दीपक की छाया की तरह जीवन का पीछा करती है। हमारा जीवन नदी की धारा की लहरों की तरह अपने तट से छूता है, इसलिए नहीं कि वह अपनी सीमाओं का बन्धन अनुभव करे, बल्कि इसलिए कि वह प्रतिक्षण यह अनुभूति लेता रहे कि उसका अनन्त मार्ग समुद्र की ओर खुला है। जीबन ऐसी कविता है जो छन्दों के कठोर अनुशासन में चुप नहीं होती, बल्कि इससे अपनी आंतरिक स्वतन्त्रता और समता को और भी अधिक प्रकट करती है।'
-(साधना, पृष्ठ ६२-६३) साधना का क्षेत्र-विस्तार असीम है, अनन्त आकाश की भांति । किसी मी एक क्षेत्र या विषय में साधना की ओर बढ़ने पर प्रत्येक जागरूक व्यक्ति अपने को नितान्त अल्प या शुन्य ही पाता है। जीवन भर डुबकियाँ लगाने पर भी अन्ततः लगता है कि अभी तो विराट के एक बिन्दु का भी स्पर्श नहीं हुआ है। बोलने को तो हम रात-दिन बोलते रहते हैं, लेकिन यथार्थतः बोलने की विशेषताओं या गरिमा से हम अन्त तक अपरिचित ही रह जाते हैं । सर्वाधिक प्राचीन जैनागम आचारांग सत्र में साधू की आहारचर्या विषयक निर्देशों को देखने से ज्ञात होता है कि साधु के लिए आहार प्राप्त करना भी अहिंसा की दृष्टि से एक साधना ही है। पांचों इन्द्रियों से तथा विभिन्न शारीरिक अवयवों से निरन्तर काम लेते हुए भी और यह जानते हुए भी कि इनका क्या उपयोग एवं लाभ है, हम इनके प्रति कितने अनजान रह जाते हैं ? सांस के बिना जीवन पलभर भी नहीं चल सकता, किन्तु क्या हम श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्मतम प्रक्रियाओं अथवा विधियों से परिचित रहते हैं ? यह जानना ही तो साधना है।
साधना की दिशा में कदम रखने का अर्थ है संकल्प करना, एकान होना, अपनी समस्त शक्तियों को केन्द्रित करना ताकि उपलब्धि का बीज अंकुरित हो सके, वह कठोर अवरोध को भेदकर ऊपर उठ सके और विशाल वृक्ष बन
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