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जैन-साधना का रहस्य
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जैन-साधना का रहस्य
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जमनालाल जैन,
साधना वह वैचारिक प्रक्रिया तथा सामाजिक आचरण अथवा धार्मिक अनुशासन है जिसके अभ्यास द्वारा हम अपने व्यक्तित्व को सार्थक करना चाहते हैं । व्यक्तित्व की सार्थकता का सर्वप्रथम एवं मूलभूत आधार हमारा शरीर है। हम शास्त्रों का, मत-मतांतरों का, परम्पराओं का, आध्यात्मिक जागृति का अभ्यास एवं प्रयास करें या न करें, हमें जो शरीर प्राप्त है उसको टिकाए रखने, उसे सक्षम बनाने एवं उससे काम लेने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि उसे साधा जाय । जाने-अनजाने हमारा शरीर जन्म के क्षण से ही सक्रिय रहता है । प्रवृत्ति इसमें सहायक होती है। मातापिता का या परिवार का वातावरण इसमें सहायक होता है। शरीर-विकास के साथ-साथ ज्यों-ज्यों मानसिक विकास होता है, बौद्धिक क्षमता बढ़ती है, त्यों-त्यों हमारी प्रक्रियाएं एवं प्रवृत्तियाँ भी नए-नए रूप ग्रहण करती हैं। और यह क्रम एक-दो वर्ष तक या दस-बीस वर्ष तक ही नहीं चलता, बल्कि मृत्यु के क्षण तक चलता रहता है। यह एक प्रकार की साधना ही है।
जीवन निरन्तर गतिशील है और हमारी आवश्यकताएं इस गतिशीलता के आधार पर घटती-बढ़ती रहती हैं । प्रारम्भ में यानी बाल्यकाल में हमें इस जीवन की गतिशीलता का ज्ञान नहीं रहता, इसलिए आवश्यकताएं भी सीमित होती हैं । जैसे-जैसे मनुष्य अपनी गतिशीलता अथवा व्यक्तित्व को समझने लगता है वैसे-वैसे उसकी आवश्यकताएँ भी व्यापक एवं विराट रूप लेती जाती हैं । खाने-पीने, नहाने-धोने, उठने-बैठने, चलने-फिरने, सोने-जागने, पहनने-ओढ़ने जैसी सामान्य प्रतीत होने वाली बातों में भी मनुष्य आगे चलकर काफी सावधान एवं जागरूक होने लगता है और इन बातों की भी आचार-संहिता उसके मानस पर छा जाती है । परम्परा, संस्कार, सामाजिक व्यवहार, नागरिक शिष्टाचार एवं कानून के सन्दर्भ में विकासमान् मनुष्य अपने जीवन का, उसकी गतिशीलता का मूल्यांकन करता है एवं उसे सार्थक सिद्ध करने के लिए अपनी सहज क्रियाओं को वैधानिक जामा पहना देता है।
पशु-पक्षियों की इन्हीं सहज प्रवृत्तियों को हम साधना नहीं कहते, क्योंकि उनकी इन सहज प्रवृत्तियों या कार्य-कलापों में कभी कोई विकास नहीं हुआ। सरकस में काम करने वाले या विशिष्ट संस्थानों में प्रयोजनवश प्रशिक्षित पशुओं के व्यवहार-विशेष को साधना अवश्य कह सकते हैं। किन्तु इसकी भी एक मर्यादा है । मनुष्य की ऐसी कोई मर्यादा नहीं है, सीमा नहीं है।
मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति, प्रत्येक कर्म एवं प्रत्येक भावना के साथ विकासशील रहा है और इसी प्रकार वह ज्ञान-विज्ञान का अतुल्य, अकूत कोष अपने में समाहित करता गया है।
संसार के अनेक धर्मों ने मानवीय क्षमता के विकास को ध्यान में रखकर, अपने-अपने समय में व्यक्तित्व की सार्थकता के कई आयाम उद्घाटित किये । खान-पान तथा चलने-फिरने से लेकर आत्मसिद्धि या परमात्म-प्राप्ति तक, समग्र जीवन को समेटने वाली हजारों-हजार क्रियाओं पर धर्म-प्रवर्तकों ने या अनुभवी महापुरुषों ने अपने विचार प्रकट किये हैं। छोटी से छोटी क्रिया को भी उन्होंने साधना का स्वरूप दिया। प्रत्येक क्रिया को धर्ममय कहकर उन्होंने क्रिया की प्राण-प्रतिष्ठा की। इससे क्रियाओं की गरिमा बढ़ी, उनके प्रति सजगता बढ़ी और पारस्परिक व्यवहार में चेतनता का प्रवेश हुआ। जैसे कलाकार पाषाण के कण-कण में विरोट सौन्दर्य की अनुभूति करते हुए मूर्ति का निर्माण करके अपनी सम्पूर्ण चेतना-ऊर्जा उसमें उड़ेल देता है और वह मूर्ति हमारे समक्ष जीवन्त हो उठती है, वैसे ही मनुष्य जीवन की सहज मानी जाने वाली क्रियाओं अथवा प्रवृत्तियों में सम्पूर्ण विश्व की आत्म-भावना का उन्मेष करने का महान
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