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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
रहता है इसी प्रकार भवस्थ श्रमण भी भोगमय जीवन से उपासना दो प्रकार की है-सगुण उपासना और अलिप्त रहता है।
निर्गुण उपासना । सगुण उपासना साकार (किसी आकृति श्री पुष्कर मुनि भी जिस परिवार और जिस समाज की मूर्ति) की उपासना। निर्गुण उपासना-निराकार की में उत्पन्न हुए हैं उस परिवार व समाज के मोह से उपासना । अलिप्त रहकर दीक्षित हुए हैं । तथा जिन प्रान्तों में पठन- स्थानकवासी परम्परा में निरालंब (निर्गुण) उपासना पाठन करते हुए आप प्रकाण्ड पण्डित बने हैं और जिन सदा मान्य रही है। क्षेत्रों में आपका उपासक संघ है, उन सब प्रान्तों के मोह श्रमण किसी व्यक्ति या जाति का अथवा ग्राम या से अलिप्त रहकर अनेकानेक जनपदों की पदयात्रा करते नगर का सहारा लेकर संयम साधना नहीं करता है। हुए वीतराग वाणी का व्यापक प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। श्रमण साधना का उद्घोष है
विधि का वरदहस्त है कि इस दुषम काल में भी “आप बले बलवंत कहावे, पर बल नित्य अधूरा"। आप गणधर परम्परा के प्रत्यक्ष प्रतीक हैं क्योंकि आप श्री पुष्कर मुनि आत्मबल से ही इतनी प्रगति करते द्विज हैं और आगमोक्त लक्षणों के अनुसार लाक्षणिक हुए समाज में गौरव पूर्ण पद प्राप्त कर पाये हैं। यद्यपि अर्थात् भावद्विज भी हैं।
आप की प्रगति से कइयों को ईर्ष्या है किन्तु आप निर्द्वन्द्व विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए। भाव से उत्तरोत्तर प्रगति करते ही चले जा रहे हैं ।
-उत्त० अ०२५, गा० ४३ । णिरालंबणस्स य आययट्रिया योगा भवति । -जिस प्रकार मिट्टी का शुष्क गोला भित्ति पर चिप
-उत्त० अ० २६, सूत्र २४ । कता नहीं है इसी प्रकार विरक्त श्रमण का मन भी किसी निरालम्ब होने से अणगार के सारे प्रयत्न आयतार्थ व्यक्ति, वस्तु या वसति में व्यामोहित होता नहीं है। अर्थात् मोक्ष के लिए होते हैं।
'श्री पुष्कर मुनि भी किसी व्यक्ति या जाति से अनु- श्री पुष्कर मुनि भी संयम साधना में सर्वथा स्वावबंधित नहीं है क्योंकि उनके प्रवचन सार्वजनिक एवं सर्व- लम्बी हैं। उनके समस्त प्रयल शिव-मोक्ष की प्राप्ति के जनोपयोगी "सर्बजन हिताय सर्वजन सुखाय' होते हैं। लिए होते हैं। आपका वाणी विलास व्यापक वात्सल्य पूरित हैं अतएव ३. पुष्कर-पय (जल) आपकी लोकप्रियता उत्तरोत्तर प्रगति की पराकाष्ठा पर
सारय सलिलं व सुद्धहियए । है। अतएव आप सबके हैं और सब आपके हैं फिर भी
-प्रश्न० संव० सू०५ आश्चर्यजनक अनुभूति है कि आपका विरक्त संयमी श्रमण शरद् ऋतु के निर्मल जल के समान शुद्ध हृदय जीवन भी सर्वथा आगमानुरक्त है।
होता है। गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिंचि कुज्जा। श्री पुष्कर मुनि का हृदय भी शिशु के समान सरल
-दश० चू०२, गा० ८। एवं निर्मल है। उनके हृदय में मताग्रह का विकार भाव --श्रमण किसी ग्राम, कुल, नगर या देश में अर्थात् नहीं है। वे इतर सम्प्रदाय के मनीषियों से भी वात्सल्य कहीं भी ममत्वभाव न करे अपितु सर्वत्र समत्व भाव से भाव से व्यवहार करते हैं। कभी किसी से वाद-विवाद विचरण करे।
या तर्क विर्तक नहीं करते हैं। वीतराग भगवान का यह संदेश श्री पुष्कर मुनि के ४. पुष्कर-करि कराग्र (हाथी की शुण्ड) संयमी जीवन में ओतप्रोत है अतएव आदर्श श्रमण जीवन
सोंडीरो कुञ्जरोव्व । का प्रतीक है।
-प्रश्न० सं० ५ २. पुष्कर व्योम (आकाश)
जिस प्रकार हाथी जीवन सहायक सभी क्रियायें शुण्ड आगासे चैव णिरालंबे
से करता है। शुण्ड से खाना-पीना, प्रहार करना, वृक्षों को
-प्रश्न सं० ५। उखाड़ फेंकना आदि वह सशक्त शुण्ड के प्रहारों से प्रबल -श्रमण आकाश के समान आलम्बन रहित संयम सैन्य दल में भी विजयश्री प्राप्त करता है। इसी प्रकार साधना करता है।
श्रमण भी प्रत्येक साधना में तथा परीषह सैन्य के सामने श्री पुष्कर मुनि निरालंब साधक हैं अर्थात् निर्गुण श्रद्धा के संबल से ही अविचल रहता है। उपासक हैं । निरंजन निराकार शुद्ध चैतन्य स्वरूप अमूर्त श्री पुष्कर मुनि भी वीतराग-वाणी पर अविचल श्रद्धा आत्मतत्त्व की उपासना निरालंब उपासना या निर्गुण रखते हुए कर्मदल का दलन कर रहे हैं । उपासना है। प्रस्तुत संदर्भ में उपासना का संक्षिप्त परिचय नागोव्व बंधणं छित्ता, अप्पणो वसहिं वए। कर लेना आवश्यक है
-उत्त० अ० १४, गा०४८
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