________________
३९४
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
जीवन और मृत्यु दोनों ही संस्कृत भाषा के शब्द हैं । 'जीव प्राणधारणे' धातु से जीवन और मृड् प्राण त्यागने से मृत्यु शब्द की निष्पत्ति होती है। प्राण धारण व प्राण त्याग बिल्कुल विपरीतार्थक हैं और इनका सीधा-सा अभिप्राय यह है कि जब तक प्राणवायु का संचार होता रहता है तब तक जीवन और जब प्राणवायु का गतागत समाप्त हो जाता है तब मृत्यु शब्द का व्यपदेश होने लगता है। इस प्रकार प्राणवायु के धारण और प्राणवायु के परित्याग द्वारा जो जीवन और मरण ये दो अवस्थायें बनती हैं वे शरीर की हैं या शरीर के अन्तर में निवास करने वाले जीव की अथवा केवल वायु की ?
इन सबका विचार किया जाये तो जीवन और मृत्यु का व्यपदेश शरीर से सम्बन्ध रखता है अर्थात् जब तक शरीर में प्राणवायु का संचार रहता है तब तक शरीर की कैसी भी अवस्था बन जाये, जीवित ही कहा जाता है और उसका सम्बन्ध हट जाने पर मृत माना जाता है, लेकिन इसके आगे का विचार करते हैं तो मानना पड़ेगा कि हमारे जीवन व मृत्यु के साथ न केवल प्राण का संसर्ग जुड़ा हुआ है किन्तु उसके अतिरिक्त कोई इस प्रकार का तत्त्व अवश्य है जो प्राण का सहकारी है । प्राण की सत्ता उसके आधार पर ही टिकी हुई है । वह तत्त्व जैसे इस शरीर को धारण किये हुए है ठीक उसी प्रकार से शरीरान्तर धारण करने की भी क्षमता रखता है । वह शरीर से भिन्न, प्राण से भिन्न तथा इन्द्रियों से भिन्न एक तत्व हैं जो शरीरान्तरों मे गतागत करता है और जीवन तथा मृत्यु उसकी ये दो गतियां हैं। यह दोनों गतियां उस समय तक चलती रहती हैं जब तक कर्म फलभोग का क्रम चालू है। उपसंहार
यहाँ संक्षिप्त रूप में पुनर्जन्म और उसके कारण आदि का परिचय दिया गया है । सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में ऐसे अनेक वृत्तान्त पढ़ने को मिलते हैं। जिनसे परलोक और पुनर्जन्म सिद्धांत की सिद्धि होती है। सभी आस्तिक दर्शनों का यह एक प्रमुख विषय है तथा आत्मा के अनादि अनन्तत्व को सिद्ध करने वाला होने से यह सिद्धांत स्वाभाविक है। किसी भी ताकिक में इस सिद्धांत को झुठलाने की क्षमता नहीं है, चाहे वह कैसी भी आलोचना करता रहे । क्योंकि जन्म है तो मृत्यु भी है और मृत्यु है तब तो पुनर्जन्म भी है।
6-0--0-पुष्क
र वाणी ---------------------------------------
मुख्य चिन्ह मुखवस्त्रिका, जैन सन्त का जान । बचा रही है प्रेम से, वायुकाय के प्राण ॥ यह गिरने देती नहीं, सम्मुखस्थित पर थूक । कहती अपने वचन से, कभी न जाना चूक । देखो दूषित वायू का, मूख में हो न प्रवेश । देती है मुखवस्त्रिका, हमें नव्य' सन्देश ।। जिस नर का हो मुख बँधा, वह रहता है स्वस्थ । पैणा पी सकता नहीं, नियम नेक अत्रस्त ।।
-o----------------------------
0
८-0--0--0-0--0-0-0--0--0-0--0--0--0--0--0--0-0-0--0-0-----------
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org