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पुनर्जन्म सिद्धान्त: प्रमाणसिद्ध सत्यता
वैज्ञानिकों ने छायाचित्र खींचने के विशेष कैमरों से मृत आत्माओं के चित्र खींचने की चेष्टा की और उसमें वे सफल भी हुए हैं । स्वामी अभेदानन्द ने अपनी पुस्तक 'लाईफ बियोन्ड डेथ' में मृत आत्माओं के बहुत से चित्र भी दिये हैं । पाश्चात्य देशों में मरणोत्तर जीवन के बारे में शोधकार्य चल रहे हैं और उनके इन कार्यों के परिणामस्वरूप नये नये तथ्य प्रगट हो रहे हैं ।
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पुनर्जन्म और मनोविज्ञान की दृष्टि
मनोविज्ञान मानव जीवन के अन्तर्बाह्य समस्त व्यापारों का विचार करता है । इन व्यापारों को चरम परिति क्या है ? यह विषय आधुनिक मनोविज्ञान का विषय नहीं है, वह इसके विचार क्षेत्र से बाहर है । मानसिक व्यापार मानव स्वभाव का निर्देश करते हैं। जैसा स्वभाव वैसा जीवन - यह स्वभाववादी मनोविज्ञान का सिद्धांत है । इसकी दृष्टि में चेतना, मन, आत्मा आदि तत्वों का कोई अस्तित्व ही नहीं है । सब कुछ स्वभाव से होता है । अर्थात् स्वभाववादी मनोविज्ञान ने पहले आत्मा को उड़ा दिया, उसके बाद मन को और उसके बाद चेतना को उड़ा दिया । अब उसका क्षेत्र सिर्फ स्वभाव या व्यवहारयुक्त शरीर तक रह गया है ।
भौतिकवादी मनोविज्ञान के अनुसार तो यह माना जाता है कि मृत्यु व्यक्ति और व्यक्तित्व दोनों का नाश कर देती है । उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्व तक यूरोप का मनोविज्ञान जाग्रत अवस्था तक ही सीमित था । फ्रायड ने अपने अनुसंधान से स्वप्न की अनुभूतियों के आधार पर उपचेतन और अचेतन मन का पता लगाया था और सुषुप्ति की प्रेरणा तथा स्वरूप पर भी कुछ प्रकाश डाला । ब्रिटेन के मनोवैज्ञानिक डा० जोड ने प्रार्थना, प्राणायाम, उपवास, और ध्यान, धारणा के द्वारा चित्तवृत्ति को संस्कृत बनाने का संकेत दिया। थियोसोफिस्ट लोगों ने भारतीय अध्यात्म को स्पर्श करने का प्रयत्न किया । मनोविज्ञान की भारतीय परम्परा में पुनर्जन्म का सिद्धान्त पूर्णतया कर्मवाद पर आधारित है।
अध्यात्म प्रधान मनोविज्ञान की यह नवीन शाखा परामनोविज्ञान के नाम से जानी जाती है । उसके अनुसंधान के मुख्य निष्कर्ष यह हैं
मनुष्य भौतिक शरीर के अतिरिक्त और इसके द्वारा कार्य करने वाला एक आध्यात्मिक प्राणी है । जिसमें अनेक अद्भुत मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ- जैसे दिव्य दृष्टि, अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष, मनःप्रत्यय ज्ञान, दूरक्रिया, प्रच्छन्न संवेदन, पूर्वबोध आदि हैं । मृत्यु केवल स्थूल शरीर को समाप्त कर पाती है। मरने के बाद भी मृत व्यक्ति की आत्मा इस संसार के व्यक्तियों पर प्रभाव डालती रहती है। उसका अस्तित्व किसी अन्य सूक्ष्म लोक में सूक्ष्म रूप से रहता है जहाँ रहते हुए वह इस लोक में रहने वाले प्राणियों के सम्पर्क में आ सकती है। स्थूल शरीर को ही व्यक्तित्व मानना तथा यह कहना कि स्थूल शरीर के नष्ट होने पर व्यक्तित्व ही समाप्त हो जाता है, ठीक उसी प्रकार से है जिस प्रकार से यह कथन कि बिजली के बल्व के फूट जाने पर या फ्यूज हो जाने पर बिजली ही नहीं रह जाती तथा उस बल्ब के स्थल पर कोई बल्ब ही नहीं जल सकता । व्यक्तित्व के बारे में इस प्रकार की धारणा मूर्खतापूर्ण धारणा है । सारांश यह है कि व्यक्तित्व में भौतिक तत्वों से परे की शक्ति विद्यमान है जो मृत्यु द्वारा समाप्त नहीं होती किन्तु वह उस रूप में या रूपान्तरित होकर अपना प्रदर्शन कर सकती है ।
मनोवैज्ञानिक डा० क्रूकाल ने हजारों घटनाओं का निरीक्षण करके इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है कि प्रत्येक प्राणी के अन्दर सूक्ष्म शरीर होता है जो कुछ अवसरों पर विशेषतः मृत्यु के अवसर पर इस भौतिक शरीर को छोड़कर बाहर निकलता है। परलोक में प्राणी इस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही वहाँ के जीवन और भोगों को भोगता है । उन्होंने अपनी पुस्तक 'सुप्रीम एडवेन्चर्स' में जो मृत्यु, परलोक और पुनर्जन्म का वर्णन किया है, वह भारतीय दर्शनों के ग्रन्थों में किये गये मृत्यु व परलोक के वर्णन से बहुत कुछ मिलता-जुलता है।
इस प्रकार पाश्चात्य आध्यात्मिक अनुसंधान (परा-मनोविज्ञान) के अध्ययन से यह निश्चित होता जा रहा है। कि परलोक और पुनर्जन्म के सिद्धांत वैज्ञानिक एवं सर्वथा सत्य पर आधारित हैं ।
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पुनर्जन्म : जन्म-मरण का सेतु
पुनर्जन्म शब्द का आशय है जीवन का तिरोभाव होने के अनन्तर होने वाला आविर्भाव । तिरोभाव का नाम है मरण और आविर्भाव का नाम है जन्म। दोनों प्रत्यक्ष हैं और दोनों शब्द सही अर्थ को सम्भवतः कुछ व्यक्ति ही समझते होंगे। अतः इनका आशय यहाँ स्पष्ट
परस्पर विरोधी हैं। लेकिन इनके करते हैं ।
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