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३५४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
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सन्देह नहीं कि भगवान महावीर के अनुयायियों में भी जो फिरकापरस्ती, लड़ाई-झगड़े खींचतान देखने को मिलती है, वह इस अनेकान्तवाद को न समझने के कारण ही है ।
यह अनेकान्त 'अपेक्षावाद' के नाम से भी प्रख्यात है। मुख्य और गौण, विवक्षा या अपेक्षा ही इसका आधार है । वस्तु के एक अनेक, अस्ति, नास्ति, नित्य, अनित्य, तत्, अतत्, सत्, असत् आदि धर्म अपेक्षा से ही कहे जा सकते हैं । वक्ता की इच्छा के अनुसार कहे जाते हैं । ज्ञानी को उसके अभिप्राय को जान कर ही वस्तु को समझने में उपयोग लगाना चाहिये । बिना अपेक्षा के वस्तु का सही स्वरूप नहीं कहा जा सकता और न समझा जा सकता है। आचार्य श्री उमास्वाति ने अर्पितानपतसिद्ध : " अर्थात्-वक्ता जब एक धर्म का प्रतिपादन करता है तो दूसरा धर्म गौण कर देता है । और जब दूसरे धर्म को कहता है तब अन्य धर्म को गोण कर देता है। यही वस्तु के कथन का क्रम है, और यही समझने का । पंचाध्यायीकर्ता ने लिखा है
स्यादस्ति च नास्तीति च नित्यमनित्यं त्वनेकमेकं च । तदतच्चेतिचतुष्टय पुग्मेरिव गुम्फितं वस्तु ॥
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अर्थात् स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति स्वात् नित्य, स्वात् अनित्य, स्यात् एक स्थात् अनेक, स्यात् तद् स्यात् अतत्, इस प्रकार चार युगलों की भाँति वस्तु अनेक धर्मात्मक है ।
इस प्रकार अनेकान्तवाद, अपेक्षावाद, कथंचिद् वाद और स्याद्वाद ये सब एकार्थवाची है । स्यात् का अर्थ कथंचित् अथवा किसी अपेक्षा से है । स्यात् शब्द व्याकरण के अनुसार अव्यय है, जिसका अर्थ भी अनेकान्त का द्योतक अथवा एकान्त दृष्टि का निषेधक है। इसी की पुष्टि में आचार्य विद्यानन्दी ने कहा है
किया है
"स्यादिति यनेकान्तयोती प्रतिपत्तयो" अर्थात् स्वात् शब्द को अनेकान्त का द्योतक समझना चाहिये। स्वामी अकलंकदेव ने भी स्याद्वाद का पर्याय अनेकान्त को ही बताया है। और बतलाया है कि यह अनेकान्त सत्, असत् नित्यानित्यादि सर्वथा एकान्त का प्रतिक्षेप लक्षण है । "सदसन्नित्यादि सर्वर्थकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः" अर्थात् - सर्वथा एकान्त का विरोध करने वाला अनेकान्त कथंचित् अर्थ में स्यात् शब्द निपात है
"सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तता द्योतकः कथंचिदर्थस्याच्छन्दो निपातः "
आचार्य समन्तभद्र ने भी स्याद्वाद का लक्षण अपने ( पंचास्तिकाय) देवागम स्तोत्र में कितना सुन्दर
स्याद्वादः सर्वर्थकान्त त्यागात् कि वृत्तविद्विषिः । सप्तमंगनयापेक्षो, यादेयविशेषकः ॥
कहने का तात्पर्य यह है कि सभी जंनाचार्यों ने अनेकान्त एवं स्याद्वाद को सर्वथा वाद का खण्डन करने वाला, विधि - निषेध को बताने वाला, हेयोपादेय को समझाने वाला कहा है। जब तक हम इस अनेकान्त को व्यावहारिक नहीं करेंगे और मात्र शास्त्रों की वस्तु ही रखेंगे तब तक कल्याण नहीं हो सकता। जैसे आम की अपेक्षा आंवला छोटा होता है, किन्तु बेर की अपेक्षा बड़ा होता है, उसी प्रकार मनुष्यत्व की अपेक्षा राजा और रंक समान होते हैं, पण्डित और मूर्ख समान होते हैं, किन्तु फिर भी उनमें परस्पर कितना अन्तर होता है, इसे कोई इन्कार नहीं कर सकता । पितापुत्रादि के नाते भी अपेक्षाकृत कहे जाते हैं । इस प्रकार यह अनेकान्त अथवा अपेक्षावाद शास्त्रों में ही नहीं, व्यवहारपरक भी सिद्ध होता है । द्रव्य दृष्टि वस्तु के ध्रौव्यरूप का द्योतन कराती है तो पर्याय दृष्टि उसकी उत्पत्ति व विनाश का ज्ञान कराती है। कोई भी वस्तु मूल रूप से सर्वथा नष्ट नहीं होती, उसकी पर्याय ही नष्ट होती है। जैसे कोई स्वर्णाभूषण है, चाहे उसे कितनी ही बार गला कर बदल लें, बदल जायगा, आज वह कुण्डल है, तो कालान्तर में उसका कटक बनाया जा सकेगा, फिर कभी अन्य आभूषण बन जायेगा परन्तु वह अपने स्वर्णपन से च्युत नहीं होगा। इसी भाँति वस्तु में परिवर्तन पर्यायापेक्षा से होता है । द्रव्यापेक्षा नहीं । आज जो गेहूँ है, वही आटा बन जाता है, फिर वही रोटी, भोजन, मल, खाद आदि नाना पर्यायों को धारण करता है । इतना होने पर भी कोई विरोध नहीं आता । उसी प्रकार अनेकान्त के सहारे वस्तु को समझने में कोई विरोध नहीं आता । आज कोई धनादि के होने से धनाढ्य है, तो कल वही उसके अभाव में रंक गिना जाता है। आज कोई रोग से रोगी है, तो कल वह निरोगी कहलाता है । जीवन और मरण का क्रम भी इसी प्रकार हानोपादान के माध्यम से चलता रहता है । स्याद्वादी अनेकान्तवादी कभी भी दुःखी या मायूस
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