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जनदर्शन में अनेकान्त
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जैनदर्शन में अनेकान्त
* महासती थी कुसुमवती 'सिद्धान्ताचार्या' [राजस्थान केसरी उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी महाराज की नेश्राय में चन्दनबाला श्रमणीसंघ
की प्रवर्तिनी स्वर्गीया श्री सोहनकुवर जी महाराज की सुशिष्या]
जैनदर्शन के भव्य प्रासाद के चार मुख्य स्तम्भ हैं, उन्हीं के आधार पर यह महल टिका हुआ है । १. आचार में अहिंसा २. विचारों में अनेकान्त ३. वाणी में स्याद्वाद ४. समाज में अपरिग्रह । यदि इन चारों में से एक की भी कमी हो जाती है तो जैनदर्शन का प्रासाद डगमगाने लगता है। हमें इन चारों की रक्षा करनी चाहिये। आज के युग में जैनदर्शन के अनुयायियों में इसकी कमी देखी जाती है, और यह कमी ही जैनधर्म के ह्रास का कारण है। बुद्धिजीवी जैनदार्शनिकों, अणुवती, महाव्रतियों तथा धर्म श्रद्धालु श्रावकों का ध्यान इस ओर जाना चाहिये कि हम अनेकान्ती हैं, वस्तु स्वरूप के ज्ञाता हैं फिर क्यों परस्पर वैमनस्य भाव रख कर झगड़ते हैं ?
भगवान महावीर ने वस्तु को अनेकधर्मात्मक बतलाया है, उस अनेकधर्मात्मकवस्तु को जानने के लिये 'अनेकान्त दृष्टि' या 'नय दृष्टि' का प्रयोग बतलाया है। क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तु का परिज्ञान अनेक दृष्टियों अर्थात् विभिन्न पहलुओं से ही हो सकता है, एक से नहीं । 'अन्त' शब्द का अर्थ धर्म होता है। जिसमें अनेक धर्म पाये जाय, वह अनेकान्त है। इस अनेकान्त विचारधारा को स्याद्वाद भाषा की निर्दोष शैली से अभिव्यक्त किया जाता है। जब यह अनेकान्तवाद स्याद्वाद की गंगा में बहता है तब किनारे के मिथ्यावादों का स्वतः निरसन हो जाता है । यह वाद अपनी अलौकिक नाना नयों की तरंगों से तरंगित होता हुआ अनन्तधर्मात्मक वस्तु का सुस्पष्ट प्रतिपादन करता है जिससे समग्र विरोध उपशान्त हो जाते हैं । इस विरोधमंथन करने वाले अनेकान्त को आचार्य अमृतचन्द्र ने नमस्कार किया है
परमागमस्य बीजं, निषिद्ध जात्यन्धसिन्धर विधानम् ।
सकल नय विलसितानां विरोध-मथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ अर्थात्-जन्मान्ध पुरुषों के हस्तिविधान का निषेधक, समस्त नयों से विलसित वस्तु स्वभाव के विरोध का शामक उत्तम जैन शासक का बीज अनेकान्त सिद्धान्त को मैं (आचार्य अमृतचन्द्र) नमस्कार करता हूँ।
इस प्रकार सम्मति तर्क के कर्ता न्यायावतार के लेखक आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ने भी अनेकान्त को नमस्कार किया है
जेण विणा लोगस्स ववहारो सम्वथा न णिवइए।
तस्स भुवणेकगुरुणो णमोऽणेगंतवायस्स ।-सम्मति तर्क ३/६८ अर्थात्-जिसके बिना लोक का व्यवहार सर्वथा नहीं चल सकता उस तीन भुवन के एक गुरु अनेकान्तवाद को मैं नमस्कार करता हूँ।
इससे सिद्ध होता है कि यह अनेकान्तवाद समस्त विरोधों को शान्त करने वाला, लोक-व्यवहार को सुचारु रूप से चलाने वाला और वस्तु स्वरूप का सच्चा परिचायक है। इसके जाने बिना पग-पग ,पर विसंवाद खड़े होते हैं, न केवल अन्य वादियों के विरुद्ध ही, अपितु अपने स्वयं के वादों में भी विवाद उपस्थित हो जाते हैं। इसमें कोई
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