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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
बंधतत्त्व के चार भेद
( १ ) प्रकृतिबन्ध - कर्म के स्वभाव का निश्चित होना ।
(२) स्थिति -- कर्मबन्ध का काल निश्चित होना ।
(३) अनुभाग - कर्म के फल देने की तीव्रता या मंदता निश्चित होना ।
(४) प्रदेश – कर्म पुद्गल शक्ति का स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिणाम में बँट जाना प्रदेश बन्ध है । २ बन्ध के शुभ और अशुभ ऐसे दो प्रकार भी हैं । शुभबन्ध को पुण्य और अशुभबन्ध को पाप कहते हैं । प्रकृति बन्ध के आठ भेद हैं
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(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (६) नाम, (७) गोत्र,
(5) अन्तराय । २२
इनमें से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म आत्मा के स्वाभाविक गुणों को आवृत करने से घाति कहलाते हैं और शेष वेदनीय, आयुः, नाम, गोत्र आत्मा के स्वाभाविक गुणों को आवृत न करके उसको संसार में टिकाये रखने के कारण अघाति कहलाते हैं । कर्मों के फल देने से पूर्व की स्थिति का नाम बन्ध है । कर्म का अनुदय काल बन्ध है । उदयकाल पुण्य-पाप है ।
मोक्ष - नवतत्त्व में अन्तिम तत्त्व मोक्षतत्त्व है। का सीधा अर्थ है, समस्त कर्मों से मुक्ति और 'राग द्वेष का बन्ध के कारण और संचित कर्मों का पूर्णरूप से क्षय हो जाना मोक्ष है । कर्म बन्धन से मुक्ति मिली कि जन्म-मरण रूप महान् दुःखों के चक्र की गति रुक गई। सदासर्वदा के लिए सत् चित् आनन्दमय स्वरूप की प्राप्ति हो गई।
मोक्ष ही जीवमात्र का चरम और परम लक्ष्य है। मोक्ष संपूर्ण क्षय' २३
तात्त्विक दृष्टि से कहा जाये तो आत्मा का अपने शुद्ध स्वरूप में सदा के लिए स्थिर हो जाना ही मोक्ष या मुक्ति है । जब साधक राग-द्वेष एवं पर-पदार्थों की आसक्ति को क्षय करके वीतराग भाव को शुद्ध-विशुद्ध पर्याय को प्रकट कर लेता है, तब वह बन्ध से मुक्त हो जाता है । यथार्थ में राग-द्व ेष से मुक्त होना ही मुक्ति है ।
मुक्तात्मा अनन्त गुणों से परिपूर्ण हो जाता है। मोक्ष या मुक्ति कोई स्थान विशेष नहीं है, किन्तु आत्मा को शुद्ध, चिन्मय स्वरूप की प्राप्ति ही मुक्ति है । मोक्ष का सुख अनिर्वचनीय है, अनुपमेय है । आत्मा का आवरणरहित निर्लेप हो जाना मोक्ष है ।
मोक्षावस्था में आत्मा ही परमात्मा बन जाता है । और सचमुच देखा जाय तो आत्मा ही परमात्मा है"अप्पा सो परमप्पा" इस अवस्था में आत्मा अपने मूल स्वभाव में आ जाता है, इसलिए उसका नाश नहीं होता और नाश नहीं होता इसलिए आत्मा का पुनः संसार में आना भी नहीं होता ।
मोक्ष प्राप्ति के चार उपाय हैं- ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य, तप । ज्ञान से तत्वों की जानकारी और दर्शन से तत्वों पर श्रद्धा होती है । चारित्र्य से आते हुए कर्मों को रोका जाता है और तप द्वारा आत्मा से बँधे हुए कर्मों का क्षय होता है । इन चार उपायों से कोई भी जीव मोक्ष पा सकता है। इसकी साधना के लिए जाति, कुल, वेश आदि कोई भी कारण नहीं है, किन्तु जिसने भी कर्मबन्धन को तोड़कर आत्मगुणों को प्रकट कर लिया, वही मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी है। जैनदर्शन में गुणों का महत्व है, व्यक्ति, जाति, लिंग, कुल, संप्रदाय आदि का नहीं।
मोक्ष के मार्ग मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यवृज्ञान और सम्यक्चारित्र की अनिवार्य आव श्यकता है । संसार के विविध तापों से मुक्त होने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रत्नत्रय की अत्यन्त आवश्यकता है। ये मोक्ष मार्ग हैं ।
तत्त्व के यथार्थ विवेक की अभिरुचि यही सम्यग्दर्शन है । २४ नय और प्रमाण से होने वाला जीव आदि तत्त्वों का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञानपूर्वक काषायिक भाव अर्थात् राग, द्वेष और योग की निवृत्ति होकर जो स्वरूप-रमण होता है वही सम्यक्चारित्र है । आत्मा में प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण प्रकट होने पर सम्यग्दर्शन का अस्तित्व सिद्ध होता है । रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन का अत्यन्त महत्व है । सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मूल सम्पदर्शन ही है। सम्यग्दर्शन बीज है। सम्यदर्शन के होने पर ही साधना रूपी वृक्ष पर ज्ञान का फूल सुगन्धित और चारित्र्य का फल मधुर बन सकता है ।
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