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ईश्वरवाद तथा अवतारवाद
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ईश्वरवाद तथा अवतारवाद
* श्री सौभाग्यमल जैन, एडवोकेट
(शुजालपुर)
भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में ईश्वर के अस्तित्व या अनस्तित्व का प्रश्न बहुचचित रहा है । मनुष्य में जब से वैचारिक क्षमता हुई तब ही से यह प्रश्न उसके मस्तिष्क में घूमा। ईश्वर संबंधी प्रश्नों पर विचार करने के पूर्व ईश्वर से क्या तात्पर्य है इस पर ऊहापोह आवश्यक है। ईश्वर, भगवान, परमात्मा, परमेश्वर, प्रभु, स्वामी आदि पर्यायवाची शब्द रहे है । ईश्वर शब्द में ऐश्वर्य का भाव निहित है । ऐश्वर्य सम्पन्न को भगवान कहा गया है। विष्णु पुराण में एक स्थान पर भगवान शब्द की व्याख्या की गई है:
ऐश्वर्यस्य, समग्रस्य, धर्मस्य, यशसः श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव, षण्णां मग ईतीरिणा॥ सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य इस प्रकार छह जीवन व्यापी तत्वों का समावेश जिसमें हो उसे भगवान कहा जाता है। जिस प्रकार भौतिक सम्पदा सम्पन्न व्यक्ति को साहबे जायदाद कहा जाता है उसी प्रकार आध्यात्मिक सम्पदा के स्वामी को ईश्वर (साहबे औसाफ) कहा जाता है । धार्मिक मान्यताओं में ईश्वर संबंधी विवेचन में परस्पर भिन्नता इतनी है कि जिसके कारण ईश्वर का प्रश्न दुरूह हो गया। किसी के मतानुसार ईश्वर सृष्टि का कर्ता, हर्ता, नियामक, किसी के मतानुसार वह प्राणियों का भले-बुरे कर्मों का फल प्रदाता (पुरस्कर्ता या दण्ड प्रदाता) माना गया; किसी के निकट वह केवल दृष्टा रहा; विष्णु सहस्रनाम में कहा गया है
उत्पत्ति प्रलयं चैव, भूतानां अति गतिम् ।
वेत्ति विद्या, अविद्या च, सवाच्यो भगवान् (वि० स० ६।५।७८) उपरोक्त श्लोक में भगवान को सृष्टि के उत्पत्ति, नाश का जानने वाला, सब प्राणियों की गति, अगति को जानने वाला, विद्या-अविद्या को जानने वाला बतलाया है । इस्लाम ने तो अल्ला को सृष्टि निर्माता तथा सब प्राणियों को उनके नेक तथा बद कार्यों के लिए पुरस्कर्ता तथा दण्डदाता के रूप में मान्यता दी। कहा जाता है कि योमे हिसाब (डे आफ जजमेन्ट) के दिन अल्लाह उनके कर्मानुसार बहिश्त तथा दोजख में भेजेगा। तात्पर्य यह है कि दार्शनिक क्षेत्र में ईश्वर का प्रश्न बहुरूपिता का रहा है । एक उर्दू के शायर ने इसी कारण लिखा था कि
फलसफा की बहस से भी तो, खुदा मिलता नहीं।
दौरे तो सुलझा रहा हूँ, पर सिरा मिलता नहीं॥ लेखक के यथासंभव अध्ययन के अनुसार जैनदर्शन में ईश्वर शब्द बहु प्रचलित नहीं रहा । भगवान, परमात्मा आदि व्यवहृत रहे हैं । लेखक के मतानुसार, परमात्मा शब्द अधिक अर्थपूर्ण है । जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक प्राणधारी में परमात्मत्व प्राप्त करने की क्षमता Potentiality वर्तमान है। जिस क्षण प्राणी अपने समस्त कार्मण वर्ग
HIMACHAR णाओं को नाश कर देता है, उसका परमात्मत्व प्रगट हो जाता है जैनदर्शन में प्रत्येक प्राणी उतना ही शुद्ध, बुद्ध, पवित्र है कि जितना परमात्मा । जैनदर्शन के अनुसार संसार दशा में जीव (आत्मा) पर कर्मों का आवरण है । यह आवरण दूर होते ही वह परमात्मा हो जाता है । यह परमात्मत्व कहीं बाहर से आकर उसे प्राप्त नहीं होता, अपितु स्वयं की सुप्त ज्योति से ही वह प्रगट होता है। जैनदर्शन में प्राणी के विकास (गुण विकास) evolution की मान्यता को गुणस्थान कहा गया है । १३वें गुणस्थान पर वह ४ कर्म (घातियाकर्मों) के आवरण से मुक्त होकर केवल ज्ञान प्रगट करता है तथा
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