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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
है। छत्र (छाता) को उलटा करके रखने पर जो उसका आकार बनता है वही आकार सिद्धशिला पृथ्वी का होता है। सिद्धशिला श्वेत स्वर्णमयी है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण-चिकनी है, मसृण है, इस्तीरी किए हुए कपड़े के समान कोमल है, धृष्ट -घिसे हुए पाषाण के समान स्पर्श वाली है, मृष्ट-चिकनी है, चमकदार है, नीरज-धूल रहित है, निष्पङ्क है।
सिद्धशिला के एक योजन ऊपर लोकान्त है । इस योजन के ऊपर के छठे भाग में सिद्ध भगवान अर्थात् मुक्त आत्माएँ विराजमान है । सुई की नोंक पर अवस्थित अर्क की एक बिन्दु में हजारों औषधियों जैसे आपस में घुलमिलकर, बिना किसी रुकावट के रहती हैं, वैसे ही अनगिनत मुक्त आत्माएँ एक ही प्रदेश में बिना किसी व्यवधान के अवस्थित रहती है । इसलिए कहा जाता है इस तरह मुक्त आत्माएँ एक में अनेक और समान और समान स्वरूप की दृष्टि से अनेक में एक रूप से जिस स्थान पर विराजमान रहती हैं, जैन दृष्टि से वही स्थान मुक्तात्माओं का निवास स्थान माना जाता है। सिद्धगति का स्वरूप
आवश्यकसूत्र के प्रणिपात सूत्र (नमोत्थुणं) के "सिवमयलमहअमणन्तमक्खयमव्वावाहमपुणरावित्ति-सिद्धिगई-नामधेयं ठाणं" ये शब्द सिद्धगति मुक्तिपुरी के स्वरूप का बड़ी सुन्दरता से परिचय करा रहे हैं । १. शिव २. अचल ३. अरुज ४. अनन्त ५. अक्षय ६. अव्याबाध और ७. अपुनरावृत्ति । ये सात शब्द सिद्ध गति के विशेषण हैं । इन पदों की अर्थ विचारणा इस प्रकार है
१. शिव-शिव कल्याण या सुख का नाम है। अथवा जो बाधा, पीड़ा और दुःख से रहित हो उसे शिव कहते हैं । सिद्धगति में केवल सुख ही सुख है वहाँ पर किसी भी प्रकार की पीड़ा या बाधा नहीं होती है। सिद्धगति में आनन्द का दिवाकर आनन्द का प्रकाश सदा बिखरता रहता है, दु:ख-तम का तो वहां पर चिन्ह भी नहीं है, इसलिए सर्वथा सुख स्वरूप उस सिद्ध गति को शिव कहा जाता है।
२. अचल-चल अस्थिर को और अचल स्थिर को कहते हैं । चलन दो प्रकार का होता है । एक स्वाभाविक दूसरा प्रायोगिक । बिना किसी प्रेरणा से जो स्वभाव से ही चलन होता है वह स्वाभाविक और वायु आदि बाह्य निमित्तों से जो चाञ्चल्य उत्पन्न होता है वह प्रायोगिक चलन माना गया है । सिद्धगति में न तो स्वाभाविक चलन होता है और ना ही प्रायोगिक, इसीलिए उसे अचल माना जाता है ।
३. अरुज-रोग रहित होने को अरुज कहते हैं । सिद्धगति में रहने वाले जीव शरीर रहित होने के कारण वात, पित्त और कफ जन्य शारीरिक रोगों से सर्वथा उन्मुक्त होते है । कर्मरहित होने से उनमें भावरोगरूप, रागद्वेष, काम और क्रोधादि विकार भी नहीं होते । इसीलिए सिद्धगति अरुज कहलाती है।
४. अनन्त-अन्तरहित का नाम अनन्त है । सिद्धगति को प्राप्त करने की आदि तो है, परन्तु उसका अन्त नहीं होता अर्थात् सिद्धगति सदा विद्यमान रहती है, उसका कभी विनाश नहीं होता। इसलिए इसे अनन्त कहा गया है। अथवा सिद्धगति में रहने वाले जीवों का ज्ञान और दर्शन अनन्त होता है और मुक्त जीवों का ज्ञान अनन्त पदार्थों को जानता है, इसलिए भी सिद्धगति अनन्त मानी जाती है ।
५. अक्षय-क्षयरहित का नाम अक्षय है। सिद्धगति अपने स्वरूप में सदा अवस्थित रहती है, उसका स्वरूप कमी क्षीण नहीं होता । अथवा सिद्धगति में विराजमान जीवों की ज्ञानादि आत्मविभूति में किसी भी प्रकार का ह्रास या क्षय नहीं आने पाता इसलिए सिद्धगति को अक्षय माना जाता है।
६. अव्याबाध-पीडारहित का नाम अव्याबाध है । सिद्धगति में मुक्तात्माओं को किसी भी प्रकार का कष्ट या शोक नहीं होता, और न ही वे जीव किसी को पीड़ा पहुंचाते हैं, अतएव सिद्धगति अव्याबाध कही जाती है।
७. अपुनरावृत्ति-पुनरावृत्ति-पुनरागमन से रहित को अपुनरावृत्ति कहते हैं। सिद्धगति में जो जीव जाते हैं, वे सदा वहीं रहते हैं, कभी वापिस नहीं आते, वहीं पर अनन्त ज्ञान, दर्शन आदि आत्म-गुणों में रमण करते रहते हैं, इसीलिए सिद्धगति अपुनरावृत्ति मानी जाती है । जैनेतर साहित्य में भी मुक्ति को अपुनरावृत्ति स्वीकार किया गया है । यहाँ पर कुछ एक उद्धरण प्रस्तुत करता हूँस मोक्षोपुनर्भव
-भागवत अर्थात्-जहाँ जाने के बाद फिर कभी जन्म नहीं होता, वह मोक्ष है।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्ता, तमाहुः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते, तद्धाम परमं मम॥ -श्रीमद्भगवद्गीता ८/८३
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