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३१६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थखण्ड
है और जैनदर्शन ने १. सम्यग्दर्शन [वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर किया गया श्रद्धान, सम्यक् विश्वास ] २. सम्यग् ज्ञान [जीव और अजीव आदि नवविध तत्त्वों का यथार्थ बोध, सच्ची जानकारी ] ओर ३. सम्यक् चारित्र [ कर्मबन्ध के वास्तविक कारणों को अगवत कर लेने के अनन्तर नवीन कर्मों को रोकना और पूर्वसञ्चित कर्मों का तप के द्वारा क्षय करना ] इस रत्न -त्रय को मुक्ति का साधन स्वीकार किया है ।
दुःख
बौद्धमत में सनातन परम्परा का विच्छेद होना मोक्ष है और संसार को दुःखमय, क्षणिक एवं शून्यमय समझना मोक्ष का साधन है। बौद्धदर्शन के अनुसार तपस्या की कठोरता तथा विषय-भोगों की अधिकता इन दोनों से अलग रह कर मध्यम मार्ग अपनाने से शान्ति मिलती है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और योग इन चारों के मत में का ध्वंस - नाश हो जाना मोक्ष है, किन्तु इसके साधनों में वहां भिन्नता मिलती है । नैयायिक और वैशेषिक दर्शन के मत में प्रमाण और प्रेमय आदि १६ तत्त्वों का परिज्ञान प्राप्त करना ही मोक्ष का साधन है, जबकि सांख्य और योग दर्शन के मत में प्रकृति-पुरुष का विवेक, भेदविज्ञान मोक्ष का साधन माना गया है। मीमांसा दर्शन के मत में वास्तविक मोक्ष माना ही नहीं है, वहाँ पर केवल यज्ञादि के द्वारा प्राप्त होने वाला स्वर्गं ही मोक्ष है तथा वेद विहित कर्म का अनुगमन और निषिद्ध कर्मों का त्याग ही उसका साधन है । वेदान्त के मत में जीवात्मा और परमात्मा की एकता का साक्षात्कार हो जाना मोक्ष है एवं अविद्या और उसके कार्य से निवृत्त होना उसका साधन है । नास्तिक दर्शन के मत में मोक्ष का विधान ही नहीं है, जब साध्य ही नहीं है, तब उसके साधन का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है।
मुक्ति शाश्वत है
अभाव होने से मुक्त आत्मा अलोक में
बन्ध तथा बन्ध के कारणों का सर्वथा अभाव एवं बँधे हुए कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होने का नाम मुक्ति है । जब आत्मा संवर के द्वारा नूतन कर्मों का आगमन रोक देती है और पूर्वसञ्चित कर्मों को तपस्या के द्वारा सर्वथा क्षीण कर डालती है तब वह कर्मजन्य सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के शरीरों से रहित होकर अग्नि से निकले धुएँ की माँति उर्ध्वगमन करती है और लोक के अग्र भाग में जाकर सदा के लिए विराजमान हो जाती है। अलोक में जीव की गति में सहायता प्रदान करने वाले धर्मास्तिकाय नामक तत्त्व का नहीं जा सकती । परिणाम स्वरूप निष्कर्म आत्मा अलोकाकाश न जाकर लोक के अग्रभाग में ही अवस्थित रहती है । कुछ विचारकों का कहना है कि कर्मों के आत्यन्तिक क्षय से मुक्ति की उत्पत्ति होती है, अतः मुक्ति उत्पत्तिशील माननी चाहिए। मुक्ति को उत्पत्तिशील मान लेने पर उसका विनाश अवश्यंभावी है। क्योंकि जिस वस्तु की उत्पत्ति होती है, उसका विनष्ट होना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में मुक्ति को शाश्वत अर्थात् सदा कायम रहने वाली नहीं माना जा सकता। इस सम्बन्ध में जैनदर्शन का अपना स्वतन्त्र चिन्तन रहा है। जैनदर्शन कहता है कि उत्पत्तिशील वस्तु की विनाश-शीलता से किसी को कोई इन्कार नहीं है किन्तु मुक्ति का अपना स्वरूप मूल रूप से उत्पत्तिशील नहीं है । वस्तुत: आत्मा का नैसर्गिक और वास्तविक जो स्वरूप है, वह कभी पैदा नहीं होता, वह तो सार्वकालिक है, अतीत में था, वर्तमान में है और अनागत काल में सर्वदा अवस्थित रहेगा । केवल कर्मों के आवरण ने उसे आवृत कर रखा है, जब उस पर आए आवरण को अहिंसा, संयम और तप की परम पवित्र साधना द्वारा हटा दिया जाता है, तब वह केवल अनावृत हो जाता है। जैसे साबुन, वस्त्र को श्वेतिमा प्रदान नहीं करता । प्रत्युत उसके ऊपर आए मैल का केवल परिहार करता है । वैसे ही अहिंसा, संयम और तप की आध्यात्मिक साधना भी आत्मा को कोई नया रूप प्रदान नहीं करती, उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त आनन्द की उत्पत्ति नहीं करती, किन्तु आत्मा के स्वरूप पर आए आवरण को हटा कर उसे अनावृत कर देती है । आत्मा के स्वरूप का लगे कर्ममल का आमूलचूल विनष्ट हो जाना ही आत्मा का मुक्ति को उपलब्ध ज्ञान स्वरूप को उत्पत्तिशील नहीं कहा जा सकता, वह तो शाश्वत है, इसके अतिरिक्त, यह भी समझ लेना चाहिए कि आत्मा का वास्तविक में भी आत्मा में विद्यमान रहता है, किन्तु कर्मों के आवरण के कारण वह प्रच्छन्न रूप से रहता है, इस आवरण की समाप्ति के साथ ही वह प्रत्यक्ष में आ जाता है ।
अनावृत्त हो जाना, जन्म-जन्मान्तर के करना है । अतः आत्मा के वास्तविक त्रैकालिक है, सदा अवस्थित रहने वाला है । ज्ञानस्वरूप या मुक्तिस्वरूप सांसारिक दशा
जैन दृष्टि से आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि कालीन है । जो सम्बन्ध अनादिकालीन होता है - वह सार्वकालिक सदा रहने वाला माना जाता है, ऐसी स्थिति में प्रश्न हो सकता है कि आत्मा अनादिकालीन कर्म-बन्धन को तोड़कर मुक्त कैसे हो सकती है ? उत्तर में निवेदन है कि जैन दर्शन ने आत्मा और कर्म का अनादिकालीन जो सम्बन्ध माना है वह केवल कर्मप्रवाह की दृष्टि से ही स्वीकार किया है। जैनदर्शन किसी
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