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________________ २७२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड a ma r t ++ + + +++ +++++ + + +++++++++ +++++++++ + + ++++++++++ +++ + + + + + + + +++ कहाकल्प आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। यह अंगबाह्य अंगप्रविष्ट के समान ही प्रमाण रूप है, क्योंकि गणधर परम्परा के आचार्यों ने अंगप्रविष्ट ग्रन्थों को आधार बनाकर ही कालदोष से कम आयु, बल और बुद्धि वाले शिष्यों के हितार्थ दशवकालिक आदि ग्रन्थों की रचना की। इसलिए इन ग्रन्थों की उतनी ही प्रामाणिकता है, जितनी गणधरों और थु तकेवलियों के द्वारा रचित सूत्रों की है, क्योंकि ये अर्थ की दृष्टि से सूत्र ही हैं, जैसे क्षीरसागर से घड़े में भरा हुआ जल क्षीरसागर के जल से भिन्न नहीं होता है वैसे ही अंगबाह्य अंगप्रविष्ट से भिन्न नहीं है । इन अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगम ग्रन्थों की उपलब्धि के विषय में जैन परम्पराओं में परस्पर मतभेद है । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अनुसार द्वादशांग में से दृष्टिवाद को छोड़कर अन्य ४५ आगम आज भी प्राप्य है । तथा श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा के अनुसार आज वर्तमान समय में ३२ आगम प्रमाणभूत हैं । यद्यपि दोनों में आगमों की संख्या के विषय में परस्पर मतभेद है, किन्तु दोनों ही उनकी उपलब्धि के विषय में तो एक मत है । परन्तु इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा का तो कहना है कि ये द्वादशांग आदि प्राचीन आगम आज वर्तमान समय में अप्राप्य हैं । इन आगमों के आधार से लिखे गये षट्खण्डागम, कषायपाहुड और कहाबन्ध तथा इन पर लिखी गई धवला और जयधवला आदि टीकाओं को आगम की ही भाँति वे प्रमाण भूत मानते हैं । सिद्धषि ने जो लोकोत्तर के स्थान पर शास्त्रज्ञ को प्रमाण माना है, उस शास्त्रज्ञ प्रमाण का स्वरूप इस प्रकार है-जो आप्तोपज्ञ अर्थात् आप्त के द्वारा प्रथमतः ज्ञात होकर उपदिष्ट हुआ है, उल्लंघनीय नहीं है, दृष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष और इष्ट अर्थात् अनुमानादि का अविरोधी है, वस्तु के अर्थात् स्वरूप का प्रतिपादक है, सबके लिए हितकारक है और कुमार्ग का निराकरण करने वाला है, उसे शास्त्र कहते हैं । और इस प्रकार के शास्त्र से उत्पन्न जो ज्ञान है उसे शास्त्र प्रमाण कहते हैं । इस शास्त्रज्ञ प्रमाण के स्वरूप से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकोत्तर और शास्त्रज्ञ में कोई विशेष अन्तर नहीं है, केवल शब्द के प्रयोग का अन्तर है। जैनदर्शन के अनुसार ये आगम या शास्त्र पौरुषेय हैं और इनका स्वतः प्रामाण्य है। यह आगम प्रमाण जैन आगमिक परम्परा का श्रु तज्ञान ही है । अन्तर केवल इतना ही है कि श्रु तज्ञान इन अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगम ग्रन्थों तक ही सीमित रह जाता है किन्तु आगम प्रमाण तो इन आगमग्रन्थों तक ही सीमित नहीं रहता अपितु वह तो व्यवहार में भी अपने विषय में अविसम्वादी या अवंचक आप्त के वचनों से जो अर्थबोध होता है उसको भी आगम को मर्यादा में लेता है। श्रतज्ञान ही आगम प्रमाण है इसलिए श्रुतज्ञान का स्वरूप भी जानना आवश्यक है। अतः अब जैन आगमिक परम्परा में श्रतज्ञान का क्या स्वरूप रहा है ? इसका निर्वचन किया जायेगा। जिससे श्रु तज्ञान ही आगम प्रमाण है यह जो कहा गया है, स्वतः स्पष्ट हो जायेगा । श्रुतज्ञान श्रु तज्ञान पर विचार करने से पूर्व श्रु त शब्द को जान लेना आवश्यक है । क्योकि श्रुत को समझे बिना श्रु तज्ञान को नहीं जान सकते हैं । सामान्यतः श्रुत का अर्थ श्रवणं-श्रु तम् से सुनना है । यह संस्कृत के 'थ' धातु से निष्पन्न है । पूज्यपाद ने भी श्रुत का अर्थ श्रु तज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर निरूप्यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनना या सुनना मात्र है वह श्रुत है ।२८ किन्तु श्रत शब्द का व्युत्पत्यर्थ सुना हुआ होने पर भी जनदर्शन में यह श्रत शब्द ज्ञान विशेष में रूढ़ है। पूज्यपाद ने तो अपनी सर्वार्थसिद्धि में कहा है कि यह श्रुत शब्द सुनने रूप अर्थ का मुख्यता से प्रतिपादक होने पर भी रूढ़ि के कारण ज्ञान विशेष में ही रूढ़ है ।" तथा 'मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम्" इस सूत्र से भी ज्ञान शब्द की अनुवृत्ति चली आने के कारण भावरूप श्रवण द्वारा निर्वचन किया गया श्रुत का अर्थ श्र तज्ञान है । केवल मात्र कानों से सुना गया शब्द ही श्रुत नहीं है।" श्रुत का अर्थ ज्ञान विशेष करने पर जैनदर्शन में जो शब्दमय द्वादशांग श्रुत प्रसिद्ध है उसमें विरोध उपस्थित होता है क्योंकि श्रु त शब्द से ज्ञान को ग्रहण करने पर शब्द छूट जाते हैं। और शब्द को ग्रहण करने पर ज्ञान छूट जाता है, क्योंकि दोनों का एक साथ ग्रहण होना असम्भव है। इस पर जैन दार्शनिकों का कहना है कि उपचार से शब्दात्मक श्रत भी श्रत शब्द करके ग्रहण करने योग्य है। इसलिए सूत्रकार ने शब्द के भेदप्रभेदों को बताया है कि यदि इनको श्रत शब्द से ज्ञान ही इष्ट होता तो ये शब्द के होने वाले भेद-प्रभेदों को नहीं बताते । २ अतः जैनदार्शनिकों को मुख्यतः तो श्रुत से ज्ञान अर्थ ही इष्ट है किन्तु उपचार से श्रुत का शब्दात्मक होना भी उनको ग्राह्य है। श्रुत के बाद अब हम श्रृ तज्ञान पर आते हैं। उमास्वाति के पूर्व, शब्द को सुनकर जो ज्ञान होता था उसे श्रु तज्ञान कहा जाता था और उसमें मुख्य कारण होने से शब्द को भी उपचार से श्र तज्ञान कहा जाता था।" किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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