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जैनदर्शन में आगम (श्रुत) प्रमाण
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आप्त हैं वह परमेष्ठी अर्थात् परम पद में स्थित, परमज्योति, विराग (रागादिभावकर्म रहित), विमल, कृती, सर्वज्ञ, अनादिमध्यान्त (आदि, मध्य और अन्त से शून्य) सार्व अर्थात् सर्वमय और शास्ता अर्थात् यथार्थ तत्वोपदेशक इन नामों से उपलक्षित होता है। समन्तभद्र के अनुसार ये आठों नाम आप्त के बोधक हैं ।
किन्तु अकलंकदेव को आप्त का इतना ही लक्षण अभीष्ट नहीं है। इन्होंने अपनी अष्टशती में आप्त का व्यापक अर्थ में एक-दूसरा लक्षण भी किया है । जिसके अनुसार जो जहाँ अर्थात् जिस विषय में अविसंवादक है वह वहाँ या जिस विषय में आप्त है, अन्यत्र अनाप्त है । आप्तता के लिए तद्विषयक ज्ञान और अविसंवादकता आवश्यक है ।"
वादिदेवसूरि" और हरिभद्र के अनुसार जो व्यक्ति जिस वस्तु का कथन करता है उसे यथार्थरूप से जानता हो तथा जिस प्रकार उसे जाना है ठीक उसी रूप में उसका कथन करता है तो वह आप्त कहा जाता है जैसे मातापिता और तीर्थकर आदि, क्योंकि इनका ही वचन अविसंवादी होता है । जैसे यहाँ धन गड़ा है, मेरू पर्वत है इत्यादि वाक्यों के अर्थ को पिता और तीर्थंकर अच्छी प्रकार से जानते हैं । अतः वे उक्त वाक्यों के आप्त हैं।
रत्नप्रभाचार्य के अनुसार जिससे कहा हुआ अर्थ ग्रहण किया जाता है वह आप्त है या जिसमें राग-द्वेषादि दोषों का क्षय हो चुका है वह आप्त है और इनका यह भी कहना है कि अशादि गण से बने आप्त शब्द का भी यही अर्थ है । रत्नप्रभाचार्य का यही कहना है कि जो पुरुष रागादि दोषों से युक्त है वह आप्त से भिन्न अर्थात् अनाप्त है क्योंकि वह पदार्थों को जानता हुआ भी इन पदार्थों का अन्यथा रूप से कथन करता है, जैसे कि पदार्थ-ज्ञान से रहित व्यक्ति करता है। साथ ही इनका यह भी कहना है कि यदि कोई अक्षर लेखन के द्वारा, संख्या के निर्देश से, अपने कर पल्लव आदि की चेष्टा विशेष से अथवा शब्द स्मरण करने से परोक्षार्थ विषयक ज्ञान को दूसरे को करा सकता है तो वह भी आप्त कहा जाता है ।
लघुअनन्तवीर्य ने भी अकलंक के समान ही आप्त का व्यापक अर्थ किया है किन्तु इन्होंने अविसंवादी के स्थान पर अवंचक शब्द का प्रयोग किया है । इनके अनुसार जो जहाँ अवंचक है, वह वहाँ आप्त है ।२२ यहाँ अवंचक से अभिप्राय यह है कि जो छल-कपट से रहित है अर्थात् निष्कपटी है और निष्कपटी वही हो सकता है जिसमें रागादि दोष नहीं है । अतः जो रागादि दोषों से रहित है वह अवंचक है और यह अवंचक पद यहाँ उपलक्षण है।
भावसेनत्रविद्य ने भी आप्त का लक्षण लघुअनन्तवीर्य के समान ही किया है। किन्तु इन्होंने यों यत्राभिज्ञत्व यह विशेषण अधिक जोड़ दिया है। इनके अनुसार जो जिस विषय को जानता है और सत्य अवंचक है, वह वहाँ आप्त है ।२३
यशोविजय के अनुसार वस्तु जैसी है उसको उसी रूप में जो जानता है और हितोपदेश-प्रवण है, वह आप्त है।
उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आप्त दो प्रकार के है-(१) लौकिक और (२) लोकोत्तर ।२५ लौकिक आप्त जनक आदि और लोकोत्तर आप्त तीर्थकर आदि हैं ।२१ आगम प्रमाण के भेद
आप्त के दो प्रकार होने से आगमप्रमाण भी दो प्रकार का है-(१) लौकिक और (२) लोकोत्तर । सिद्धर्षि ने लोकोत्तर के स्थान पर शास्त्रज्ञ शब्द प्रमाण माना है किन्तु लोकोत्तर और शास्त्रज्ञ में कोई विशेष अन्तर नहीं है। (भेद की दृष्टि से जनदर्शन का अन्य भारतीय दर्शनों से साम्य ही है, क्योंकि अन्य भारतीय दर्शनों में भी शब्द प्रमाण के दो ही भेद किये गये हैं।) (१) लौकिक
अपने विषय में अविसंवादी और अवंचक आप्त के वचनों से जो अर्थबोध होता है वह लौकिक आगम प्रमाण है। (२) लोकोत्तर
यह लोकोत्तर आगम प्रमाण अंगप्रविष्ट और अंगबाह्यरूप से दो प्रकार का है। साक्षात् तीर्थंकर जिस अर्थ को अपनी पवित्र वाणी से प्रकट करते हैं और गणधर जिसका सूत्र रूप में ग्रथन करते हैं उसे अंगप्रविष्ट कहते हैं । आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशांग, अन्तकृत्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण विपाकसूत्र और दृष्टिवाद आदि के भेद से बारह प्रकार का है तथा जो गणधर परम्परा के आचार्यों के द्वारा शिष्य के हितार्थ जो रचा जाता है, वह अंगबाह्य है । वह दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प व्यवहार, कल्पाकल्प,
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