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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
सम्बोधित करते हैं, किन्तु उसके पर्यायवाची अन्य शब्दों से उसका कथन नहीं होता । जैसे किसी व्यक्ति का नाम यदि 'इन्द्र' रखा गया तो उसे सुरेन्द्र, देवेन्द्र आदि पर्यायवाची नामों से सम्बोधित नहीं करेंगे और न वह व्यक्ति भी इन शब्दों को सुनकर अपने को सम्बोधित किया गया समझ सकेगा। स्थापना निक्षेप :
जो अर्थ तद्रूप नहीं है, उसे तद्रूप मान लेना स्थापना निक्षेप है । अर्थात् यह वही है इस प्रकार अन्य वस्तु में बुद्धि के द्वारा अन्य का आरोपण करना स्थापना निक्षेप है।'
स्थापना दो प्रकार की होती है-तदाकार और अतदाकार । अतः स्थापना निक्षेप के भी दो भेद हैं-तदाकार स्थापना निक्षेप, अतदाकार स्थापना निक्षेप । इन्हें सद्भाव-साकार स्थापना और असद्माव-अनाकार स्थापना भी कहते हैं। वास्तविक पर्याय से परिणत वस्तु के समान बनी हुई अन्य वस्तु में उसकी स्थापना करना तदाकार स्थापना है। जैसे कि एक व्यक्ति अपने गुरु के चित्र को गुरु मानता है, देवदत्त के चित्र को देवदत्त मानता है तो यह तदाकार स्थापना है । असली आकार से शून्य वस्तु में 'यह वही है' ऐसी स्थापना कर लेने को अतदाकार स्थापना कहते हैं जैसे कि शतरंज के मोहरों में हाथी, घोड़ा आदि की कल्पना करना अतदाकार स्थापना है।
नाम और स्थापना निक्षेप दोनों यद्यपि वास्तविक अर्थ से शून्य होते हैं, लेकिन दोनों में यह अन्तर है कि स्थापना में नाम अवश्य होगा क्योंकि बिना नामकरण के स्थापना नहीं हो सकती, परन्तु जिसका नाम रखा है, उसको स्थापना हो भी और न भी हो। नाम और स्थापना दोनों निक्षेपों में संज्ञा देखी जाती है, बिना नाम रखे स्थापना हो ही नहीं सकती है तो भी स्थापना में स्थापित वस्तु के प्रति जो आदर, सम्मान, अनुग्रह आदि की प्रवृत्ति होती है, उस प्रकार की प्रवृत्ति केवल नाम में नहीं होती। द्रव्य निक्षेप - अतीत, अनागत और अनुपयोग अवस्था, ये तीनों विवक्षित क्रिया में परिणत नहीं होती हैं इसलिए इनको द्रव्य निक्षेप कहते हैं । लोक व्यवहार में वाचनिक प्रयोग विचित्र और विविध प्रकार का होता है । अतः वर्तमान पर्याय की शून्यता के उपरान्त भी जो वर्तमान पर्याय से पहचाना जाता है यही इसमें द्रव्यता का आरोप है, जिससे किसी समय भूतकालीन स्थिति का वर्तमान में प्रयोग किया जाता है तो किसी समय भविष्यकालीन स्थिति का वर्तमान में प्रयोग होता है। जैसे कि भविष्य में राजा बनने वाले बालक को राजा कहना अथवा जो राजा दीक्षित होकर श्रमण अवस्था में विद्यमान है, उसे भी राजा कहना, यह द्रव्य निक्षेप का प्रयोग है । इस प्रकार के वचन प्रयोग हम दैनिक जीवन में देखते हैं । वे प्रयोग असत्य नहीं माने जाते । उनकी सत्यता का नियामक द्रव्य निक्षेप है।
द्रव्य निक्षेप का क्षेत्र अत्यन्त विशाल, विस्तृत है । अतः इसके मूल भेद, उनके अवान्तर भेद और उनके भी उत्तर भेदों की अपेक्षा से अनेक भेद हैं, लेकिन सामान्य रूप में द्रव्य निक्षेप के आगम द्रव्य निक्षेप और नोआगम द्रव्य निक्षेप-यह दो मूल भेद हैं । जो जीवविषयक या मनुष्य जीव विषयक शास्त्र या अन्य किसी शास्त्र का ज्ञाता है, किन्तु वर्तमान में उस उपयोग से रहित है उसे आगम द्रव्य निक्षेप कहते हैं, तथा पूर्वोक्त आगम द्रव्य की आत्मा का उसके शरीर में आरोप करके उस जीव के शरीर को ही जो आगम द्रव्य कह दिया जाता है, यह नोआगम द्रव्य निक्षेप है । अर्थात् आगम द्रव्य निक्षेप में उपयोग रूप आगम ज्ञान नहीं होता है, किन्तु लब्धिरूप (शक्तिरूप) होता है और नोआगम द्रव्य निक्षेप में दोनों प्रकार का आगम ज्ञान-उपयोग और लब्धि रूप-नहीं होता है सिर्फ आगम ज्ञान का कारणभूत शरीर होता है । आगम द्रव्य में जीव द्रव्य का ग्रहण होता है और नोआगम में उसके आधारभूत शरीर का । क्योंकि जीव में आगम संस्कार होना सम्भव है किन्तु शरीर में वह सम्भव नहीं है। यही आगम और नोआगम द्रव्य निक्षेप में अन्तर है।
नोआगम द्रव्य निक्षेप के तीन भेद हैं-१ ज्ञशरीर (ज्ञायक शरीर) २ भव्य शरीर ३ तद् व्यतिरिक्त ।
नोआगम द्रव्य निक्षेप के भेद-प्रभेदों का कथन इस प्रकार किया है-मूल में तीन भेद हैं-ज्ञायक शरीर, भावी, तद्व्यतिरिक्त । ज्ञायक शरीर के तीन भेद-भूत, वर्तमान, भावी । भूत ज्ञायक शरीर के तीन भेद-च्युत, च्यावित व त्यक्त । त्यक्त ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है-भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी, पादपोपगमन ।
आगम द्रव्य निक्षेप के नौ भेद-स्थित, जिन, परिचित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम, छोषसम ।
जिस शरीर में रहकर आत्मा जानता-देखता, ज्ञान करता था वह 'ज्ञ शरीर' या ज्ञापक शरीर है। जैसे
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