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________________ जैनदर्शन को निक्षेपपद्धति २६५ . वाच्यों में भेद की रचना करता है। इसीलिए ज्ञाता के श्रुत विषयक विकल्पों की उपलब्धि के उपयोग में आने वाले निक्षेप प्रयोजनवान, फलप्रद हैं। निक्षेप के भेद : पदार्थ की अनन्त अवस्थाएँ होने से यदि विस्तार में जायें तो कहना होगा कि वस्तु-विन्यास के जितने भी क्रम हैं उतने ही निक्षेप हैं, लेकिन संक्षेप में कम-से-कम चार भेद हैं १. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. भाव ।। इन चारों में उन अनन्त निक्षेपों का अन्तर्भाव हो जाता है । अर्थात् संक्षेप में निक्षेप के पूर्वोक्त नाम आदि चार भेद हैं और विस्तार से अनन्त । षट्खण्डागम के वर्गणा निक्षेप प्रकरण में नाम-वर्गणा, स्थापना-वर्गणा द्रव्यवर्गणा, क्षेत्रवर्गणा, कालवर्गणा, भाववर्गणा के भेद से निक्षेप के छह भेद बतलाये हैं। लेकिन ये विशेष विवेचन के विस्तार की अपेक्षा से भेद किये गये हैं । सामान्यतया तो नाम, स्थापना द्रव्य, भाव ये चार भेद ही माने जाते हैं। पहले यह बताया जा चुका है कि नय और निक्षेप का विषय-विषयी भाव सम्बन्ध है। नय ज्ञानात्मक है और निक्षेप ज्ञयात्मक । अतः नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन निक्षेप द्रव्याथिक नय के विषय हैं और भाव निक्षेप पर्यायार्थिक नय का विषय है । क्योंकि भाव निक्षेप पर्याय (विशेष) रूप है, जिससे उसे पर्यायाथिक नय का विषय माना जाता है, जबकि शेष तीन द्रव्य (सामान्य) रूप होने से द्रव्याथिक नय के विषय हैं। नैगम, संग्रह और व्यवहार इन तीन द्रव्याथिक नयों में चारों निक्षेप तथा ऋजुसूत्र नय में स्थापना के अतिरिक्त तीन निक्षेप सम्भव है । जबकि तीनों शब्द नयों (शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत) में नाम और भाव ये दो ही निक्षेप होते हैं। यद्यपि भावनिक्षेप पर्यायाथिक नय का विषय है, लेकिन कथंचित् वह द्रव्याथिक नय का भी विषय माना जा सकता है। यद्यपि शुद्ध द्रव्यार्थिक नयों में तो भावनिक्षेप नहीं बन सकता है, क्योंकि भाव निक्षेप में वर्तमान काल को छोड़कर अन्य काल प्राप्त नहीं है, परन्तु जब व्यंजन पर्यायों की अपेक्षा भाव में द्रव्य का सद्भाव स्वीकार कर लिया जाता है तब अशुद्ध द्रव्याथिक नयों में भाव निक्षेप बन जाता है । इसीलिए उपचार से भावनिक्षेप को द्रव्याथिक नय का विषय भी कह सकते हैं परन्तु मुख्य रूप से वह भी पर्यायाथिक नय का विषय है । इस प्रकार से निक्षेप पद्धति के सम्बन्ध में विचार करने के बाद अब उसके नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, इन चारों भेदों के लक्षणों व उनके उत्तर भेदों को बतलाते हैं। नाम निक्षेप: ___ संज्ञा के अनुसार जिसमें गुण नहीं है ऐसी वस्तु में व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा को नामनिक्षेप कहते हैं । अर्थात् व्यवहार की सुविधा के लिए वस्तु का जो इच्छानुसार नामकरण किया जाता है, वह नाम निक्षेप है। नाम सार्थक और निरर्थक दोनों प्रकार का हो सकता है। जैसे कि सार्थक नाम इन्द्र है और निरर्थक नाम दिस्थ है । नाम मूल अर्थ से सापेक्ष भी व निरपेक्ष भी, दोनों प्रकार का हो सकता है, किन्तु जो नामकरण संकेत मात्र के लिए होता है, जिसमें जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया आदि की अपेक्षा नहीं होती, वह नाम निक्षेप है । जैसे कि 'एक निरक्षर व्यक्ति का नाम विद्यासागर रख दिया । एक निर्धन व्यक्ति का नामकरण लक्ष्मीपति कर दिया। लेकिन विद्यासागर और लक्ष्मीपति का जो अर्थ होना चाहिए वह उनमें नहीं मिलता है। उन दोनों व्यक्तियों में इन दोनों शब्दों का आरोप किया गया है । विद्यासागर का अर्थ है-विद्या का समुद्र और लक्ष्मीपति का अर्थ है धन-सम्पत्ति का स्वामी । विद्या का सागर होने से किसी को विद्यासागर कहा जाये और जो लक्ष्मी ऐश्वर्य आदि का पति है उसे लक्ष्मीपति कहा जाये तो यह नाम निक्षेप नहीं है। किन्तु जो ऐसे नहीं हैं, उनका नामकरण करना नामनिक्षेप है। यदि नाम के साथ इसी प्रकार के गुण भी विद्यमान हों तो हम उनको 'भाव विद्यासागर' और 'भाव लक्ष्मीपति' कहेंगे। 'नाम विद्यासागर' और 'नाम लक्ष्मीपति' ऐसी शब्द रचना हमें बताती है कि ये व्यक्ति नाम से विद्यासागर और लक्ष्मीपति हैं। यदि नाम निक्षेप नहीं होता तो हम विद्यासागर, लक्ष्मीपति आदि नाम सुनकर अगाध विद्वत्तासम्पन्न एवं धनधान्य, ऐश्वर्य युक्त व्यक्ति को ही समझ लेने को बाध्य होते, परन्तु ऐसा होता नहीं है। क्योंकि संज्ञामूलक शब्द के पीछे नाम विशेषण लगते ही सही स्थिति सामने आ जाती है कि इन शब्दों का वाच्य जब गुण की विवक्षापूर्वक अर्थानुकूल नहीं होता, तब नाम निक्षेप ही विवक्षित समझना चाहिए। नाम निक्षेप के बारे में यह ध्यान रखना चाहिए कि व्यक्ति का जो नामकरण किया जाता है, उसी से उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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