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चतुर्थ खण्ड : जैनदर्शन - चिन्तन के विविध आयाम
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जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विमर्श
[] डा० दरबारीलाल कोठिया (पूर्व रीडर का० हि० वि० वि० वाराणसी ]
भारतीय तर्कशास्त्र में अनुमान पर पर्याप्त विमर्श किया गया है और संख्याबद्ध ग्रन्थों का प्रणयन
हुआ है ।
जैन दार्शनिकों द्वारा किया गया अनुमान विमर्श भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। जैन तार्किकों ने अनुमान में उल्लेखनीय अभिवृद्धि और संशोधन दोनों किये हैं। यहाँ हम उसी पर एक समीक्षात्मक एवं ऐतिहासिक विमर्श कर रहे हैं ।
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अध्ययन से अवगत होता है कि उपनिषद्काल में अनुमान की आवश्यकता एवं प्रयोजन पर बल दिया जाने लगा था। उपनिषदों में 'आत्मावारे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः " आदि वाक्यों द्वारा आत्मा के श्रवण के साथ मनन पर भी बल दिया गया है, जो उपपत्तियों (युक्तियों) के द्वारा किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि उस काल में अनुमान को भी श्रुति की तरह ज्ञान का साधन माना जाता था— उसके बिना दर्शन अपूर्ण रहता था । यह सच है कि अनुमान का 'अनुमान' शब्द से व्यवहार होने की अपेक्षा 'वाकोवावयम्', 'आन्वीक्षिकी' 'तर्कविद्या', 'हेतुनिया' जैसे शब्दों द्वारा अधिक होता था ।
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प्राचीन जैन वाङ्मय में ज्ञानमीमांसा (ज्ञानमार्गणा ) के अन्तर्गत अनुमान का 'हेतुवाद' शब्द से निर्देश किया गया है और उसे श्रुत का एक पर्याय ( नामान्तर ) बतलाया गया है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने उसका 'अभिनिबोध' नाम से उल्लेख किया है। तात्पर्य यह कि जैनदर्शन में भी अनुमान अभिमत है तथा प्रत्यक्ष ( सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ज्ञानों) की तरह उसे भी प्रमाण एवं अर्थनिश्चायक माना गया है। अन्तर केवल उनमें वैशद्य और अवैशद्य का है । प्रत्यक्ष विशद है और अनुमान अविशद (परोक्ष) ।
अनुमान के लिये किन घटकों की आवश्यकता है, इसका आरम्भिक प्रतिपादन कणाद ने किया प्रतीत होता है। उन्होंने अनुमान का "अनुमान से निर्देशन कर 'लेजिक' शब्द से किया है, जिससे ज्ञात होता है कि अनुमान का मुख्य घटक लिङ्ग है । सम्भवत: इसी कारण उन्होंने मात्र लिङ्गों, लिङ्गरूपों और लिङ्गाभासों का निरूपण किया है । उसके और भी कोई घटक हैं, इसका कणाद ने कोई उल्लेख नहीं किया। उनके भाष्यकार प्रशस्तपाद ने अवश्य प्रतिज्ञादि पाँच अवयवों को उसका घटक प्रतिपादित किया है।
तर्कशास्त्र का निबद्धरूप में स्पष्ट विकास अक्षपाद के न्यायसूत्र में उपलब्ध होता है। अक्षपाद ने अनुमान को 'अनुमान' शब्द से ही उल्लिखित किया तथा उसकी कारणसामग्री, भेदों, अवयवों और हेत्वाभासों का स्पष्ट विवेचन किया है । साथ ही अनुमान परीक्षा, वाद, जल्प, वितण्डा, छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे अनुमान सहायक तत्त्वों का प्रतिपादन करके अनुमान को शास्त्रार्थोपयोगी और एक स्तर तक पहुँचा दिया है। वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, उदयन और ने उसे विशेष परिष्कृत किया तथा व्याप्ति पक्षधर्मता, परामर्श जैसे उपयोगी अभिनव तत्वों को विविक्त करके उनका विस्तृत एवं सूक्ष्म निरूपण किया है। वस्तुतः अक्षपाद और उनके अनुवर्ती तार्किकों ने अनुमान को इतना परिष्कृत किया कि उनका दर्शन 'न्याय (तर्क- अनुमान) दर्शन' के नाम से ही विश्रुत हो गया ।
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असंग, वसुबन्धु, दि नाग, धर्मकीति प्रभृति बौद्ध तार्किकों ने न्यायदर्शन की समालोचनापूर्वक अपनी विशिष्ट और नयी मान्यताओं के आधार पर अनुमान का सूक्ष्म और प्रचुर चिन्तन प्रस्तुत किया है। इनके चिन्तन का अवश्यम्भावी परिणाम यह हुआ कि उत्तरकालीन समग्र भारतीय तर्कशास्त्र उससे प्रभावित हुआ और अनुमान की साथ सूक्ष्म से सूक्ष्म एवं जटिल होती गयी। वास्तव में बौद्ध तार्किकों के चिन्तन ने
विचारधारा पर्याप्त आगे बढ़ने के
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