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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
११. अंत समय में मरने वाले की जैसी मति होती है, वैसी ही उसकी गति होती है। -जैन कथाएँ भाग ७, पृ० ८२ १२. पाप कर्म चाहे जितनी गुप्त रीति से किये जायें, किन्तु वे कभी छिपते नहीं। -जैन कथाएँ भाग ८, पृ० १२८ १३. साधना की पहली सीढ़ी तो गुरु सेवा ही है।
-जैन कथाएँ भाग ६, पृ०७ १४. सात गाँव जलाने से जितना पाप लगता है, उतना पाप बिना छना पानी पीने से लगता है। १५. सूर्यास्त होने पर जल रुधिर के समान है, अन्न माँस के समान अर्थात् अपेय और अभक्ष्य हो जाना है।
-जैन कथाएं भाग १०, पृ० ४६ १६. वृद्ध पुरुष की युवा पत्नी कामांध होती है तो युवा स्त्री का वृद्ध पति विवेकान्ध ।
-जैन कथाएँ भाग ११, पृ० १७ १७. (१) कभी भी बिना जाना फल न खाना चाहिए (२) यदि प्रहार करना हो तो सात-आठ कदम पीछे हटे बिना
किसी पर प्रहार नहीं करना । (३) राज की अग्रमहिषी को सदा माता के समान मानना और (४) भूलकर के भी कभी कौए का माँस न खाना चाहिए
-जैन कथाएँ भाग १३, पृ० ४६ १८. भाग्य में जो कुछ लिखा है वह अमिट है। होनहार को कौन टाल पाया है। जैन कथाएँ भाग १३, पृ०६ १६. राजमद जब चढ़ता है तो अन्धा बना देता है। राज-मद से मतवाला बना शासक विवेक और धर्म को ताक पर रख देता है।
-जैन कथाएँ भाग १४, पृ० १६१ २०. वीर पुरुष अपना भविष्य स्वयं बनाते हैं।
-जैन कथाएँ भाग १५, पृ० ३० २१. सूखे ईंधन के साथ गीला भी जल जाता है।
-जैन कथाएं भाग १६, पृ० १३५ २२. ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरे से अनिष्ट चिन्तन में ही डूबा रहता है, पर वह दूसरे का तो कुछ बिगाड़ नहीं पाता, स्वयं अपना जीवन ही विषमय कर लेता है।
-जैन कथाएं भाग १७, पृ० १६ २३. प्रकाश के बाद अंधकार और दिन के पश्चात रात्रि-यह संसार का नियम है।
-जैन कथाएं भाग १८, पृ० २४ २४. अज्ञानी जीव ही स्त्री-पुत्र में आसक्त रहते हैं । संसार में कोई किसी का नहीं होता।
-जैन कथाएँ भाग १६, पृ० ११३ २५. कर्मों का फल भोगने के लिए ही जीव संसार के चक्र में घूमता है । यह जगत् कर्म प्रधान है।
-जैन कथाएँ भाग २०, पृ० १२८ २६. जरा और मृत्यु किसी के मित्र नहीं होते।
मरे के साथ कौन मरता है ? .. जैसे सुख और हर्ष स्थायी नहीं रहता, वैसे ही दुःख और शोक भी हमेशा नहीं रहते।
-जैन कथाएँ भाग २१, पृ० ४ २७. अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है । शक्ति मनुष्य को विनम्र बनाती है, और जो बल पाकर अकड़ता है वह टूट जाता है।
-जैन कथाएं भाग २२, पृ० १६४ २८. राजन् ! शास्त्र-वचनों में अविश्वास करना घोर पाप है । क्योंकि जिन ऋषियों ने शास्त्र-रचना की है, वे द्रष्टा रहे हैं । उन्होंने जो कुछ लिखा है वह देखकर व अनुभव करके लिखा है।
-जैन कथाएँ भाग २२, पृ० १७४ २६. दानी के घर लक्ष्मी टिकती है। दानियों का धन हजार गुना होकर दूसरे जन्म में मिलता है और कृपण का
धन अनायास ही दूसरों का हो जाता है । कृपणों का धन नरक में ले जाता है और दानियों का धन स्वर्ग प्रदान करता है।
-जैन कथाएं भाग २३, पृ० ११२ ३०. मनुष्य अपनी एक योजना बनाकर चलता है और मन में अनेक मन्सूबे बाँधता है। लेकिन देव क्या करना चाहता है, यह वह नहीं जान पाता । मनुष्य कुछ सोचता है और देव कुछ और ही कर दिखाता है।
-जैन कथाएँ भाग २३, पृ० १६४ ३१. वेश्या के लिए चोर-साहूकार, रोगी, कोढ़ी और स्वस्थ सभी कामदेव के समान अच्छे लगते हैं, क्योंकि उसका प्राप्य तो केवल धन ही होता है, व्यक्ति नहीं।
-जैन कथाएं भाग २४, पृ० १५ ३२. इस संसार रूपी मंच पर न तो कोई चोर है न कोई साहूकार । अपने-अपने पूर्वकृत कर्मों से प्रेरित-प्रभावित सब कर्म-लीलाएँ करते हैं।
-जैन कथाएं भाग २४, पृ०५३ ३३. भविष्य की चिन्ता भूत और वर्तमान को भुला देती हैं।
-जैन कथाएँ भाग २५, पृ०२३ ३४. विनाश-काल में बुद्धि विपरीत हो जाती है।
-जैन कथाएं भाग २५, पृ० ६२
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