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तृतीय खण्ड : गुरुदेव की साहित्य धारा
आपश्री की राजस्थानी भाषा में प्रवचनों की तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं (१) मिनल पणा रौ मोल (२) रामराज (३) संस्कृति रा सुर आपकी राजस्थानी भाषा गृहावरेदार और हृदयस्पर्शी है। आपने रामराज्य के सम्बन्ध में लिखा है
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"उण दिन देस में सोना रो सूरज उगी हो, कारण के एक हजार वरसां री गुसांमी भुगतने देख सुतंतर सरबतंतर हुआ हो । इण सुतंतरता र वास्ते भारत रा सपूतां सांमी छाती गोलियां झेली। मांतावां आपरा व्हाला डीकरां ने फांसी पर झूलता देख्यां । जलियाँ वाला बाग में जो अत्याचार हुआ, उणने देखने मिनखपणी कुरलाय ऊठ्यौ । ओ दानवता रो नागी नाच हो । पण गांधीजी री विचार रूपी आँधी परदेसी राजा नै खतम कर दियो अर इतिहासप्रसिद्ध लाल किला पर यूनियन जेक री जगँ समता अर सांति रो प्रतीक तिरंगो असोक चक्र लहरायो । भारतवासियां रहिवडा में आनंद री छोलां उछलण लागी। मन रा मोर नाचण लाग्या हिवडा रूपी कमल खिलग्या । जीवण रा कण-कण में नवी चेतणा आई अर जै जै कार री आवाज सूं आभी गूंजण लागी । बालक-बूढां सगलां ₹ चे रा पर खुसी नाचण लागी ।"
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संयम की महत्ता का विश्लेषण करते हुए आपने प्रत्यक्ष अनुभूतिपूर्ण उदाहरण देते हुए कहा
"आप संकर रा मन्दिर में जावती वखत बारला कांनी काछबा री मूरत देखी व्हैला । इण मूरत रौ अर्थ औ है के जो थे संकर रा परतख दरसण करणा चावो तो प'ला काछबा रे ज्यू पोता री इंद्रियां पर काबू राखौ । जठा तांई काछब धर्म धारण नी करौला, संकर (सुख) रा दरसण नी व्हैला ।”
प्रामणिकता के बिना साधना का महत्त्व नहीं है : जीवन में प्रामाणिकता का क्या महत्त्व है इसे गुरुदेव श्री ने इस रूप में व्यक्त किया है
"आपणौ भारत आध्यात्मिक मुल्क गिणी जौ । अठ हजारां-लाखां मिनखां आध्यात्मिकता री धूणी धूकाई है, आध्यात्मिकता रा उपदेस दिया है अर आध्यात्मिकता रा गीत गाया है दरसण शास्त्र धर्म शास्त्र अर न्याय सास्त्र ए. सगलाई सास्त्र इण वास्ते इज बण्योडा है के वे मिनख जै पोतरा धें कांनी ले जावें । संगला सास्त्रा में मांनखा रो चरित्र उण रे जीवण रो पायो गिणी जै । जो मिनख रे जीवण में चरित्र रूपी पायौ इज नीं व्है तो पर्छ धार्मिक क्रियावां लांबा-लांबा पूजा पाठ, धार्मिक ग्रन्थां रो अध्ययन, लच्छादार भासण अर प्रवचन सब बेकार है । बिनां रांग रा मकांन जसा है ।"
आपश्री के प्रवचनों की तीन पुस्तकें गुजराती भाषा में प्रकाशित हुई हैं- जिन्दगीनो आंनद, जीवन नो शंकार और 'सफल जीवन' जीवन कला पर चिन्तन करते हुए आपने कहा-कला नो उद्देश्य मानव जीवन नै विकृत बनावानो न थी के प्रकृतज राखवानो न थी । परन्तु तेने संस्कृत बनाववानो छे । भोग अने विलासना साधनो अने प्रसाधनों ना अर्थ मां कला शब्द नो प्रयोग करवो ते कला नी मश्करी करवा जेवु छे । आ कलांनी विकृति छे, कला नो आभास छे । साची कला न थी । आजकाल सिनेमा नी जाहेर खबरों ना चित्रकारों विलास भवनों माँ नग्नमूर्तिओ घरनारा मूर्तिकारो श्रीमन्तों ने रीझवबा माटे नृत्य करनारी वेश्याओं रेडियो अने सिनिमा स्टुडियो माँ पैसा-पैसा माटे गावानी अभिनय करता संगीतज्ञों अने केटलाक गंदी राजरमतनी राणी ना दलालां करता कवियों कला ना व्यभिचारिओ छे । आवा अधिकारी ना हाथमा जवाना लीधे ज कलानी आटली बधी बदनामी थई छे । चाँदी ना थोड़ा सिक्कानों बदला मां कलानु बेचाण न थइ शके । साचो कला पारखु कलाकार पोतानी कला थी समाज ने सत्य नी सिद्धान्त नी अने कल्याण नी अनुभूति करावे छे।"
सत्य के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए आपने कहा
" सत्य एक पारसमणि छे । तेनो स्पर्श थतांज मानव-जीवन रूपी लोढुं सोनु बनी ने चमकवा लागे छे । जेणे सत्यनों स्वीकार [कों] ते पूजनीय सम्माननीय अने सन्त शिरोमणि बनी गया ।"
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इस प्रकार श्रद्धेय सद्गुरुवर्य के प्रवचन जीवन को प्रेरणा देनवाले अभिनव ज्योति को जागृत करने वाले हैं। चिन्तन साहित्य
जितनी अनुभूति तीव्र होगी उतनी ही अभिव्यक्ति स्पष्ट होगी । और उसकी आभा देश व काल की संकुचित सीमा को पार करके सर्वदा एक समान रहने वाली है । यही कारण है कि सूक्ति साहित्य मोती के समान लघु होने पर भी मूल्यवान है। संक्षिप्तता ही सच्ची सिद्धता है। गुरुदेवधी की अभिव्यंजना वदी मामिक और प्रभावशाली है। उनका शब्द-चयन और वाक्य-निर्माण इतना आकर्षक है कि पाठक पढ़ते-पढ़ते झूमने लगता है । सद्गुरुदेवश्री का सूक्तियों का
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