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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
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अत्यन्त आल्हादित हुए। और उनके हुतन्त्री के तार झनझना उठे कि गुरु गम से जो ज्ञान प्राप्त होता है वही सही ज्ञान है। कई बार पढ़ने से उन्हें रहस्यों का परिज्ञान नहीं होता।
गुरुदेव और पं० दलसुख भाई मालवणिया : पं० दलसुख भाई जैनदर्शन के मूर्धन्य चिन्तकों में से हैं । वे बहुत ही सुलझे हुए विचारक हैं । गुरुदेव श्री के जयपुर, अहमदाबाद, बम्बई, पूना और बेंगलोर में दर्शन किये और अनेकों बार गुरुदेव श्री से धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति के विभिन्न विषयों पर विचार-चर्चाएँ हुईं। और गुरुदेव श्री के स्नेह सौजन्ययुक्त स्वभाव से वे बहुत ही प्रभावित हुए । विस्तार भय से हम उन चर्चाओं का अंकन यहाँ नहीं कर रहे हैं।
गुरुदेव और आगम प्रभावक मुनिश्री पुण्यविजय जी म० : सादड़ी सन्त सम्मेलन के सुनहरे अवसर पर आगम प्रभावक मुनिश्री पुण्य विजय जी से गुरुदेवश्री की भेंट हुई। सम्मेलन के अति व्यस्त कार्यक्रम के कारण उस समय विशेष विचार-चर्चा नहीं हो सकी। किन्तु सन् १९७० में बम्बई बालकेश्वर में अनेकों बार आपश्री से आगम, नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीकाएं आदि के रहस्यों को लेकर विचार-चर्चाएं हुईं और वे चर्चाएँ अत्यन्त ज्ञानवर्धक थीं। गुरुदेव श्री ने अनेक बातें जो स्थानकवासी परम्परा में धारणा-व्यवहार के रूप में चल रही थीं वे आपश्री को बतायीं । उसे सुनकर आपश्री ने कहा-जो बातें धारणाओं से चल रही हैं वे बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं, कई आगम के रहस्य जो आगम और व्याख्या साहित्य से भी स्पष्ट नहीं होते वे इनसे स्पष्ट हो जाते हैं। आगमप्रभावक जी ने यह भी बताया कि स्थानकवासी परम्परा की धारणाओं का एक संकलन हो जाय तो आगमों के रहस्य को समझने में उनका भी अत्यधिक उपयोग हो सकता है।
गुरुदेव और आचार्य श्री तुलसी : गुरुदेव श्री का आचार्य तुलसी जी से दो बार मिलन हुआ। प्रथम बार सन् १९६१ में सरदारगढ़ (राजस्थान) में और द्वितीय बार सन् १९६५ में जोधपुर में । प्रथम बार मिलने के समय आचार्य श्री तुलसी जी ने तेरहपन्थी समुदाय के द्वारा प्रकाशित अपना सम्पूर्ण साहित्य गुरुदेव श्री को भेंट किया। दूसरे दिन प्रातःकाल शौच से निवृत्त होकर लौटते समय आचार्य श्री के साथ आपकी भेंट हुई । आचार्य तुलसी जी ने गुरुदेव श्री से पूछाकल हमने साहित्य प्रेषित किया था। वह आपने देखा होगा बताइये वह आपको कैसा लगा?
गुरुदेव श्री ने कहा-साहित्य के क्षेत्र में आपकी प्रगति देखकर मन में आल्हाद होता है । आप संगठन के व जैन एकता के प्रबल पक्षधर हैं, तो आपके द्वारा साहित्य भी वैसा ही प्रकाशित होना चाहिए जो एकता की दृष्टि से सहायक हो । जिस साहित्य से विघटन पैदा होता हो, राग-द्वेष की अभिवृद्धि होती हो उसका प्रकाशन करवाना आज के युग में कहाँ तक उपयुक्त है ?
आचार्य तुलसी-ऐसा कौनसा ग्रन्थ प्रकाशित हुआ जो आपकी दृष्टि से अनुचित है ? गुरुदेव श्री ने कहा-भिक्षु दृष्टान्त जैसे ग्रन्थ का प्रकाशन मैं उचित नहीं मानता ।
आचार्य तुलसी-भिक्षु दृष्टान्त में अनेक ऐतिहासिक सत्य-तथ्य रहे हुए हैं, अतः उसका प्रकाशन करवाना आवश्यक समझा गया।
गुरुदेव-भिक्षु दृष्टान्त की तरह उस युग के दृष्टान्तों का संकलन जो भिक्षु दृष्टान्त के खण्डन के रूप में हैं, वह संकलन मेरे पास है जिसे पढ़कर पाठक के दिल में राग द्वेष की आग भड़क उठे, क्या उनका भी हमें प्रकाशन करवाना चाहिए?
गुरुदेव श्री ने जीतमलजी महाराज, कविवर नेमिचन्द जी म. के पद्य भी सुनाये जिनमें तेरापंथ के सम्बन्ध में कटु आलोचना थी जो उस युग की भावना का चित्र था जिन्हें सुनकर आचार्य तुलसी जी के चेहरे पर से ऐसा परिज्ञात हो रहा था कि भिक्षु दृष्टान्त का प्रकाशन करवाकर उचित नहीं किया, क्योंकि प्रतिक्रिया के रूप में ऐसा साहित्य प्रकाशित किया जायेगा तो उससे दरार बढेगी, घटेगी नहीं।
दूसरी बार जोधपुर में जैन एकता को लेकर गुरुदेव श्री आदि से लगभग एक घण्टे तक वार्तालाप हुआ। प्रस्तुत वार्तालाप अत्यन्त स्नेह सौजन्यपूर्ण क्षणों में सम्पन्न हुआ। इस वार्तालाप में उपाध्याय हस्तीमल जी महाराज भी सम्मिलित थे। गुरुदेव श्री ने बताया कि जैन एकता की अत्यन्त आवश्यकता है। यदि हम इस सम्बन्ध में जागरूक न हुए तो आने वाली पीढी हमारे पर विचार करेगी । और वह एकता तभी संभव है कि मंच पर ही नहीं किन्तु प्रत्येक
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