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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन
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प्रो जंगम पुष्कर तीर्थराज, पुष्कर ! तेरा अभिनन्दन है !
0 गजसिंह राठौड़ जैन न्यायतीर्थ
अध्यात्म क्षितिज के दिव्य अरुण, ओ जैन जगत के ज्योतिपुञ्ज !
ओ तपोपूत पुष्कर गुरुवर ! ओ आर्यधरा के महासन्त ! साष्टांग प्रणति पुनि भक्ति सहित, उत्कृष्ट विनय से ओतप्रोत, तव कोटि-कोटि अभिवन्दन युत, अभिनन्दन है, अभिनन्दन है ।।
लाखों नदियों के वेग तुल्य, अमृत तुल्य, अमृत स्रोतों से आप्लावित, उच्छल उल्लोल तरंगों से, उद्वेलित अमत-सागर सम । गुरु पुष्कर तेरे अन्तर में, अमत पुष्कर है ओत-प्रोत, ओ जंगम-तीर्थराज तेरा, गुरुवर पुष्कर अभिनन्दन है।
तेरे अगाध अन्तस्तल के, उस अमृत-पुष्कर से उद्गत, गंगा-यमुना हग-युग पथ से, मुख से बहती सरस्वती । धारा सङ्गम-सी यह बहती, जन-जन के कलि-मल को धोती, चलते-फिरते ओ तीर्थराज ! पुष्कर ! तेरा अभिनन्दन है।
साहित्य-सृजक, ओ उपाध्याय ! उद्भट साहित्यिक-निर्माता, सचमुच तू नव-युगस्रष्टा है, तेरा यश दश-दिशि में मुखरित । हाँ त्रिविध ताप की शान्ति हेतु, तू शीतल चन्दा चन्दन है, ओ महाप्राण ! ओ सद्गुरुवर ! पुष्कर तेरा अभिनन्दन है।
दिग्गज देवेन्द्र हीरा गणेश, कविवर रमेश राजेन्द्र आदि,
ओ शिल्पी तेरे सुघड़ शिष्य, साहित्यसजन में निशिदिन रत । तब धवल कीति को अजर-अमर, कर रहे मुक्तिपथ को प्रशस्त, कंकर से शंकर निर्मायक ! पुष्कर ! तेरा अभिनन्दन है।
हिमगिरि-सा तेरा भव्य दिव्य व्यक्तित्व सौम्य जग सम्मोहक, गुरुतर विराट तेरा स्वरूप, अतिशय प्रताप अनुपम प्रभाव । जल-थल-आकाश-धरातल का, कण-कण समस्त यह प्राणि-संघ, गुजार रहा है पुलकित हो–“गुरु पुष्कर ! तेरा अभिनन्दन है ॥"
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