________________
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन
९७
+++++++
++
+
++
+
+
+
++
प्रकाश-स्तम्भ
0 श्री खुमाणसिंह कागरेचा
परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज छल के नुकीले काँटों से बिंध रहा है । श्रद्धेय गुरुदेव उनके अपने आप में एक संस्था हैं । अतीत काल के श्रमण मुनियों लिए प्रकाशस्तम्भ के समान हैं। वे सद्भावना, स्नेह, दया के द्वारा प्रदत्त हमारी संस्कृति और सभ्यता के सर्वोत्तम आदि सद्गुणों का विकास कर मानवों का मार्गदर्शन कर चिन्तन का प्रतिनिधित्व करते हैं। आध्यात्मिक श्रेष्ठता रहे हैं। श्रद्धेय गुरुदेव का हमारे प्रान्त पर महान् उपकार की अगम्य गहराइयों में पैठकर चिन्तन व अनुभव के मोती है। हम लोगों को धर्म के सम्मुख करने वाले हैं। उनका निकालते हैं । जो काम वे कर रहे हैं वह सामान्य मानव जीवन हम सभी के लिए प्रेरणा सूत्र है । उनका अभिनन्दन की शक्ति से परे है। आज का विश्व निराशा की काली- किया जा रहा है। यह गौरव की बात है । मैं अपनी कजराली निशा में भटक रहा है, घृणा, अविश्वास और हार्दिक श्रद्धा उनके चरणों में समर्पित करता है।
-*
हार्दिक श्रद्धार्चना
0 अर्जुनलाल मगनलाल मेहता, गोगुन्दा श्रद्धेय सद्गुरुवर्य निस्संदेह एक महापुरुष हैं। महा- मेरे गुरुदेव का जितना अधिक विकास हो उतना ही हमारे पुरुष कभी वंश-परम्परा से, स्थान से या जन्म से नहीं बनता लिए गौरव की बात होगी । आज गुरुदेव श्री को देखकर किन्तु पवित्र चरित्र के विकास से महापुरुष होता है। मेरा हृदय बाँसों उछलता है । गुरुदेव श्री ने दीक्षा लेकर उसकी प्रत्येक क्रिया एक अविच्छिन्न सत्य से ओतप्रोत होती अपना ही विकास नहीं किया, किन्तु लाखों-करोड़ों जीवों है जिसमें सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय की मंगल भावनाएं का भी उद्धार किया है । आपका जीवन प्रत्येक दृष्टि से अठखेलियां करती रहती हैं।
उज्ज्वल रहा है, पवित्र रहा है। आज गुरुदेव श्री का मुझे आज भी वे दिन याद हैं जिन दिनों आप वैराग्या- सार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा है यह हमारे लिए वस्था में थे । आपके सलोने रूप को देखकर मैं हर्षविभोर परम आल्हाद की बात है। हे पूज्य भगवन्, आप बढ़ो, हो उठा था। मैंने गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्दजी महा- आपका खूब विकास हो । आपकी कीर्ति-कौमुदी दिग्-दिगन्त राज से कहा था कि यह बालक बड़ा ही तेजस्वी है और प्रकाशित हो यही मेरी हार्दिक मंगलकामना है । आपकी आपश्री के नाम को चार चांद लगायेगा । समय-समय पर वरद छत्र-छाया में हमारा प्रान्त धर्म के क्षेत्र में निरन्तर मैंने गुरुदेव श्री को बाल्यकाल में साधना के महापथ पर आगे बढ़ता रहे यही मेरी हार्दिक श्रद्धार्चना है। . निरन्तर बढ़ने की प्रबल प्रेरणा भी दी। मैं चाहता था कि बीसवीं सदी के महापुरुष शांतिलाल जैन मंत्री, तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, पदराडा
भौतिकवाद के इस युग में मानव का जीवन नैतिक चमत्कृत हो । उन सन्तों की परम्परा में श्रद्धय सद्गुरुवर्य पतन की ओर जा रहा है । उस पतन से रोकने के लिए का स्थान शीर्षस्थ है। जैन सन्त अहर्निश प्रयास कर रहे हैं कि मानव का जीवन सबसे पहले मैंने गुरुदेव के दर्शन कब किये यह पूर्ण ध्यान चरित्र की सौरभ से महके, उसके जीवन में पवित्र चरित्र नहीं है। किन्तु आपश्री का सन् १९६६ में जब पदराडा
लिए का स्थान पहले मैंने गुरुदेव सन १९६६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org