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प्रथम खण्ड : अवार्चन
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सच्चे सन्त
शादी
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श्री पारसमल जी मिश्रीमल जी जीनाणी
जैनधर्म भारत का प्राचीनतम धर्म है। समय-समय आदि प्रान्तों में विचरण रहने से गुरुदेव श्री का जितना पर तीर्थकर, आचार्य, उपाध्याय और ज्योतिर्धर सन्त पैदा निकट सम्पर्क होना चाहिए उतना नहीं हो सका। हमारे होकर इस धर्म की ज्योति को प्रदीप्त करते रहे हैं। अपने परम सौभाग्य से गुरुदेव श्री का पुण्यभूमि कर्नाटक में पदाप्रबल प्रभाव से जन-जन के अन्तर्मानस में निर्मल विचार र्पण हुआ जिसके कारण मुझे रायचूर, बल्लारी हुबली-धार
और पवित्र आचार का संचार करते रहे हैं । जैन दृष्टि से वाड़, श्रवण बेलगोल, मैसूर और बेंगलोर में दर्शन व सेवा पंचम काल में तीर्थकर नहीं होते, केवलज्ञानी नहीं होते, का सौभाग्य मिला। गुरुदेव श्री की प्रेरणा से प्रसुप्त संस्कार किन्तु सन्त भगवन्त ही तीर्थंकरों का प्रतिनिधित्व करते पुन: जागृत हुए । बेंगलोर वर्षावास में गुरुदेव श्री के बहुत हैं । साक्षात् भगवान तो नहीं, किन्तु भगवान के सदृश होते ही सन्निकट रहने का अवसर मिला । मुझे ऐसा अनुभव हैं। जिन तो नहीं, जिन के समान होते हैं। एतदर्थ ही हुआ गुरुदेव श्री जैन परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाले कवि ने कहा- "सन्त ही मानवों के लिए देवता हैं। सच्चे सन्त हैं। उनका जीवन बहुत ही निर्मल है । उनका वे ही उनके परम बान्धव हैं, उनकी आत्मा हैं और हृदय बालक की तरह सरल है, सरस है । सांसारिक प्रपंचों भगवत्स्वरूप हैं।"
से दूर रहकर निरन्तर साधना करना ही उन्हें प्रिय है। सन्त का जीवन त्याग का ज्वलन्त प्रतीक है। उसके वार्तालाप के प्रसंग में कई बार उन्होंने फरमाया कि सामाजीवन के कण-कण में, मन के अणु-अणु में, त्याग, वैराग्य जिक प्रपंचों से भी दूर रहकर एकान्त शान्त स्थान पर का पयोधि उछालें मारता है। इसीलिए भारतीय जन- दीर्घकाल तक साधना करने की इच्छा होती है। मैंने यह मानस उनके चरणों में नत होता रहा है, अपनी अपार भी देखा, गुरुदेव श्री को जन-सम्पर्क की रुचि नहीं है । वे श्रद्धा उनके चरणों में समर्पित करता रहा है। मैं अपना साधना को अधिक पसन्द करते हैं और वे चाहते हैं कि परम सौभाग्य समझता हूँ कि इस भौतिक-भक्ति के युग साधुओं का जन-सम्पर्क कम हो और वे ज्ञान और ध्यान में में जहाँ चारों ओर भौतिकवाद की आँधी चल रही है प्रगति करें। ज्ञान-ध्यान की प्रगति ही सच्ची प्रगति है। मानव उस घुड़दौड़ में आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा लगा रहा गुरुदेव श्री के ऊर्जस्वल व्यक्तित्व के कारण बेंगलोर में जो है ऐसी विकट बेला में मुझे सद्गुरुदेव श्री का सम्पर्क मिला तपःसाधना हुई वह महान रही। गुरुदेव श्री के कारण ही जिनके सम्पर्क के कारण मेरी धर्म के प्रति रुचि जागृत संघ में स्नेह की सरस-सरिता प्रवाहित होने लगी। युवकों हुई । यों गुरुदेव श्री का हमारे परिवार के साथ परम्परा में धार्मिक साधना के प्रति रुचि जागृत हुई । वस्तुतः गुरुदेव से सम्बन्ध है। मेरे पूज्य पिता श्री मिश्रीमल जी भूताजी श्री का बेंगलोर वर्षावास ऐतिहासिक रहा। गुरुदेव श्री के परम भक्तों में से थे। उनकी गुरुदेव श्री पर गुरुदेव श्री के सम्बन्ध में मैं क्या लिखू ? उनके गुणों अपार निष्ठा थी। जीवन की सान्ध्यवेला में उन्होंने गुरुदेव का वर्णन करना हमारी शक्ति के परे है । वे हमारी श्रद्धा के समक्ष निःशल्य भाव से आलोचना कर संथारा भी किया के केन्द्र हैं । हमारी यही मंगलकामना है कि गुरुदेव श्री था। मैंने भी गुरुदेव श्री को बाल्यकाल में ही गुरु बनाये थे। पूर्ण स्वस्थ रहें और खूब ही जैन धर्म का प्रचार करें, हम किन्तु बाद में व्यवसाय के कारण बेंगलोर आदि में विशेष उनके मंगलमय आशीर्वाद से धर्म को अधिकाधिक जीवन रहने से और गुरुदेव श्री का राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात में अपना कर अपना कल्याण करें।
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